Book Title: Gunsthan Siddhanta ek Vishleshan Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Parshwanath Shodhpith VaranasiPage 40
________________ दिगम्बर साहित्य में गुणस्थान सिद्धान्त के बीज ३३ पं० दलसुखभाई आदि विद्वानों की अवधारणा है और उस वाचना का काल ईस्वी सन् की पाँचवीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध है। श्वेताम्बर परम्परा में गुणस्थान शब्द सबसे पहले आवश्यकचूर्णि में और दिगम्बर परम्परा में पूज्यपाद देवनन्दी की सर्वार्थसिद्धि टीका में उपलब्ध होता है। इन दोनों का काल विद्वानों ने छठी शताब्दी का उत्तरार्द्ध और सातवीं शती का पूर्वार्द्ध माना है। इस आधार पर हम कह सकते हैं कि षट्खण्डागम का काल लगभग पाँचवीं शती का उत्तरार्द्ध या छठीं शताब्दी का पूर्वार्द्ध रहा होगा । इतना निश्चित है कि षट्खण्डागम में 'गुणस्थान' नाम को छोड़कर गुणस्थान सम्बन्धी समस्त अवधारणाएँ अपने विकसित रूप में हैं। यद्यपि हम अपने पूर्व अध्याय में यह बंता चुके हैं कि गुणस्थान सिद्धान्त के विकास का आधार आचार्य उमास्वाति के तत्त्वार्थसूत्र में प्रतिपादित कर्म - निर्जरा के आधार पर आध्यात्मिक विकास की दस अवस्थाएँ हैं, तथापि इस सम्बन्ध में खोजबीन के दौरान हमें इन दस अवस्थाओं का चित्रण षट्खण्डागम के चतुर्थ (वेदना) खण्ड के अन्तर्गत सप्तम वेदनाविधान की चूलिका में तथा आचारांगनिर्युक्ति की गाथा २२२ - २२३ में भी मिला है । षट्खण्डागम की चूलिका में प्रस्तुत गाथाएँ मूल ग्रन्थ का अंश न होकर कहीं से ली गई हैं और ये चूलिका में इनकी व्याख्या की गई है। सम्भावना यह है कि ये गाथाएँ आचारांगनिर्युक्ति से उसमें ली गई हों। हम यह भी प्रमाणित कर चुके हैं कि उमास्वाति के तत्त्वार्थसूत्र में उपलब्ध गुणस्थान सिद्धान्त के बीजों का ही क्वचित् विकास कसायपाहुड में हुआ है। मेरी दृष्टि में कसायपाहुड, उमास्वाति के तत्त्वार्थसूत्र के पश्चात् लगभग ५० से १०० वर्ष के बीच निर्मित हुआ है। यह बात भिन्न है कि हम उमास्वाति का काल क्या मानते हैं ? उमास्वाति के काल के आधार पर ही इन ग्रन्थों के काल का निर्धारण किया जा सकता है। हम सामान्य रूप से उमास्वाति के तत्त्वार्थसूत्र का काल तीसरी - चौथी शताब्दी मानते हैं और इसी आधार पर हमने इन तिथियों का निर्धारण किया है। वे लोग इन तिथियों को एकदो शताब्दी पूर्व ला सकते हैं । इतना निश्चित है कि प्रज्ञापना के काल अर्थात् ईस्वी सन् की प्रथम शताब्दी तक गुणस्थान सिद्धान्तों का विकास नहीं हुआ था, किन्तु उस काल तक कर्म-निर्जरा पर आधारित आध्यात्मिक विकास की दस अवस्थाओं की अवधारणा बन चुकी थी, क्योंकि तत्त्वार्थ के पूर्व आचारांगनिर्युक्ति में भी यह अवधारणा उपस्थित है । " यद्यपि षट्खण्डागम गुणस्थान सिद्धान्त का एक विकसित ग्रन्थ है फिर भी उसमें गुणस्थान सिद्धान्त की बीजरूप वे गाथाएँ भी समाहित कर ली गई हैं, जिनसे गुणस्थान की यह अवधारणा विकसित हुई है । यहाँ हमारा उद्देश्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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