Book Title: Gunsthan Siddhanta ek Vishleshan Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Parshwanath Shodhpith VaranasiPage 42
________________ दिगम्बर साहित्य में गुणस्थान सिद्धान्त के बीज दिये गए। यदि सम्प्रदाय-निरपेक्ष दृष्टि से मूल हस्तप्रतों से प्रकाशित षट्खण्डागम का मिलान कर यथार्थ स्थिति को समझने का प्रयास किया जाय तो उत्तम होगा। मेरी यह भी स्पष्ट अवधारणा है कि ये चूलिकासूत्र और उसमें दी गई मूल-गाथा ग्रन्थ में बाद में जोड़ी गई है, चाहे उसे स्वयं ग्रन्थकार ने ही जोड़ा हो। साथ ही ये दोनों गाथाएँ षट्खण्डागम की रचना से प्राचीन हैं। भले ही इनकी व्याख्या के रूप में जो सूत्र दिये गए हैं वे षटखण्डागम के अपने हो सकते हैं। ये गाथाएँ या तो नियुक्ति से या संग्रहणी गाथाओं से ही ली गई होंगी। फिर मैं इन गाथाओं के प्राचीन मूल स्रोत की खोज में लगा और मैंने पाया कि ये दोनों गाथाएँ आचारांगनियुक्ति में उसके चौथे अध्ययन की नियुक्ति के रूप में हैं। मुझे इनका अन्य कोई प्राचीन स्रोत प्राप्त होगा तो मैं पाठकों को अवश्य सूचित करूंगा। यद्यपि अभी तक आचारांगनियुक्ति से प्राचीन इनका अन्य कोई स्रोत उपलब्ध नहीं हो सका है। आचारांगनियुक्ति और षट्खण्डागम के वेदनाखण्ड की चूलिका की ये गाथाएँ एक ‘कसाय' शब्द को छोड़कर शब्दश: समान हैं। अत: सम्भावना यही है कि गाथाएँ उसी से ली गई होंगी। फिर भी पं० परमानन्दजी शास्त्री ने भी उस तुलना में षट्खण्डागम की इन गाथाओं के व्याख्यासूत्र ही दिये थे, मूल गाथाएँ नहीं दी थीं। ये गाथाएँ निम्नवत् हैं - सम्मत्तुप्पत्ती वि य सावय विरदे अणंतकम्मंसे । दंसणमोहक्खवए कसाय उवसामए य उवसंते ।। खवए य खीणमोहे जिणे य णियमा भवे असंखेज्जा । तविवरीदो कालो संखेज्जगुणा य सेडीओ ।।१२ आचारांगनियुक्ति में ये गाथाएँ निम्नलिखित रूप में हैं - सम्मत्तुप्पत्ती सावए विरए अणंतकम्मंसे । दंसण मोहक्खवए उवसामन्ते य उवसंते ।। खवए य खीणमोहे जिणे अ सेढ़ी भवे असंखिज्जा । तव्विवरीओ कालो संखिज्जगुणाइ सेढीए ।।१३ उपर्युक्त दोनों ग्रन्थों की गाथाओं में कर्म-निर्जरा के आधार पर आध्यात्मिक विकास की जिन दस अवस्थाओं का चित्रण है वे हमें तत्त्वार्थसूत्र में भी उसी रूप में मिलती हैं। सम्यग्दृष्टिश्रावकविरतानन्तवियोजकदर्शनमोहक्षपकोपशमकोपशान्तमोहक्षपकक्षीणमोहजिना: क्रमशोऽसंख्येयगुणनिर्जराः।। - तत्त्वार्थसूत्र ९/४७ ( विवेचक पं० सुखलालजी ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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