Book Title: Gunsthan Siddhanta ek Vishleshan Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Parshwanath Shodhpith VaranasiPage 39
________________ गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण कुमारनन्दि ही कार्त्तिकेयानुप्रेक्षा के लेखक स्वामीकुमार हैं तो इस दृष्टि से भी उनका समन्तभद्र और कुन्दकुन्द के पूर्व होना सिद्ध हो जाता है। एक अन्तिम बाधा कार्त्तिकेयानुप्रेक्षा की प्राचीनता के सन्दर्भ में यह है कि उसमें कुछ गाथाएँ अपभ्रंश के प्रभाव युक्त हैं और योगीन्दु के ग्रन्थों में पाई जाती हैं। इस सम्बन्ध में पं० जुगलकिशोर जी मुख्तार आदि की कल्पना यह है कि कार्तिकेयानुप्रेक्षा में ये गाथाएँ प्रक्षिप्त हैं।' पुनः अपभ्रंश का प्रभाव तो प्रतिलिपि करने के दौरान युग की भाषागत विशेषता के कारण आ सकता है। हम देखते हैं कि इस प्रकार के प्रभाव प्राचीन स्तर के श्वेताम्बर मान्य आगमों में भी आ गये हैं। हम कार्त्तिकेयानुप्रेक्षा को किस काल की रचना मानते हैं यह प्रस्तुत आलेख का विवेच्य विषय नहीं है। हमारा प्रतिपाद्य मात्र इतना है कि गुणस्थान सिद्धान्त के सन्दर्भ में कार्त्तिकेयानुप्रेक्षा की जो स्थिति है वह आचारांगनिर्युक्ति और तत्त्वार्थसूत्र के बाद की है और षट्खण्डागम तथा पूज्यपाद देवनन्दी की सर्वार्थसिद्धि की टीका के पूर्व की है अर्थात् यह लगभग ५वीं शती के पूर्व की रचना है । हम यह भी मान लें कि कार्त्तिकेयानुप्रेक्षा सातवीं शताब्दी की रचना है तो भी इतना तो माना ही जा सकता है कि उसमें कर्म - निर्जरा के आधार पर आध्यात्मिक विकास की ग्यारह अवस्थाओं की जो चर्चा है वह प्राचीन है और गुणस्थान के विकास की अवधारणा का आधार रही है, क्योंकि यह चर्चा दिगम्बर परम्परा में भी लगभग गोम्मटसार तक चलती रही है। ३२ षट्खण्डागम : दिगम्बर कर्म - साहित्य के परिप्रेक्ष्य में यह स्पष्ट है कि षट्खण्डागम में गुणस्थान सिद्धान्त अपने पूर्ण विकसित स्वरूप में प्राप्त होता है । इसका सत्प्ररूपणा खण्ड चौदह गुणस्थानों की विस्तृत विवेचना करता है । इतनी विशेषता अवश्य है कि इसमें 'गुणस्थान' शब्द के स्थान पर 'जीवसमास' शब्द ही प्रयुक्त हुआ है, अतः हम कह सकते हैं कि षट्खण्डागम उस काल की रचना है जब गुणस्थान सिद्धान्त विकसित तो हो चुका था किन्तु उसे गुणस्थान नाम प्राप्त नहीं हुआ था । श्वेताम्बर परम्परा में भी, समवायांग में चौदह गुणस्थानों के नाम तो उपलब्ध होते हैं किन्तु उन्हें जीवट्ठाण कहा गया है। आवश्यकनियुक्ति में जो दो प्रक्षिप्त गाथाएँ गुणस्थानों का विवरण देती हैं वे चौदह भूतग्रामों का उल्लेख होने के बाद दी गई हैं। उसमें इन चौदह अवस्थाओं को कोई नाम नहीं दिया गया है। इन दो गाथाओं को गाथाओं की क्रमसंख्या में परिगणित भी नहीं किया गया है। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि षट्खण्डागम और समवायांग तथा नियुक्ति का वह प्रक्षिप्त अंश एक ही काल की रचना है। समवायांग में यह अंश अन्तिम वाचना के समय ही जोड़ा गया है, ऐसा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 ... 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150