Book Title: Gaharayankosa
Author(s): Jineshwarsuri, Amrutlal Bhojak, Nagin J Shah, Dalsukh Malvania
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 55
________________ सिरिजिणेसरसूरिविरइओ सद्दहिमो तुज्झ पियत्तणस्स तह तं पि नेय जाणामो । दे सुहय ! तुमं ति य सिक्खवेसु जं तुह पिया होमि ॥४७९॥ अलियकुवियं पि कयमंतुओ व्व में मुहय ! जेसु अणुणितो । ताण दियहाण सरई रुयामि, न उणो अहं कुविया ॥४८०॥ को तं ? पिए ! पईवो, नेहक्खयकारएण कि तेण ? ।। नं दइओ वाऽऽयाओ ! इय तीए जयंति उल्लावा ॥४८॥ सुंदर ! तुमाओ अहियं निययं चिय अम्ह वल्लहं जिययं । तं तुह विणा न होइ त्ति तेण कुवियं पसाएमि ॥४८२॥ न मुति दीहसासे, न रुयंति, न होति विरहकिसिआओ। धन्नाओ ताओ जाणं बहुवल्लहो(?ल्लहओ) नरो न तुमं ॥४८३॥ तुह सुयणु ! न रूसिज्जइ, एक्कग्गाहीण गारवं कत्तो ? । बीयाए गओ चंदो वंदिज्जइ सयललोएहि ॥४८४॥ अन्नमहिलापसंगं हे दिव्व ! करेसु मज्झ दइयस्स । पुरिसा एक्कंतरसा न हु दोस-गुणे वियाणंति ॥४८५॥ अप्पाण लाहवं चिय विरत्तहिययेसु अणुणयपराणं बंधुयणचाडुएहिं न नाम जीवंति गयपाणा ॥४८६॥ ३४. अथ विरहप्रक्रमः चंदण-पंकयहारं सहि(ही)ओ! मा देह मज्झ हिययम्मि । अणुहवउ सो वि संतावदुक्खमिह जो जणो वसइ ॥४८७॥ थणवठ्ठछिद्दमासाइऊण जं दहसि विरहिणीहिययं । तं रयणायरसंभवगुणसार ! न हार ! जुत्तमिणं ॥४८८॥ विवरि(री)यद्धच्छिपलोइएहिं तेणऽम्ह गुरुयणसमक्खं । इंदीवरनालेण व जलं व आयड्ढियं हिययं ॥४८९॥। जीयव्वं जेण विणा न मए सुविणे वि चिंतियं आसि । तस्स विरहम्मि माए ! इन्हि दियहा गमिजंति ॥४९०॥ पियहोत्तं पंजलयं [?पि] पिच्छिमो जइ वि लोयसंकाए । तह वि हु केणऽम्हे बलेण वंकुडिज्जति अच्छीओ ? ॥४९१॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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