Book Title: Gaharayankosa
Author(s): Jineshwarsuri, Amrutlal Bhojak, Nagin J Shah, Dalsukh Malvania
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 90
________________ सुभासियगाद्दासंगहो तं किंपि कथं रइसंगमम्मि मिहुणेहिं चाडुपरिकम् । जं सरिऊण विरामे अन्नोन्नं लज्जिया हुंति ॥ ८४ ॥ तह तेहिं एक्मेक्कं अवगूढं विरहदुब्बलंगेहिं | जह तत्तमयणधीउलिय व्व एक्कं व जायाई ॥ ८५ ॥ अणवरयसलिलनिवडंतधारपहराहया विसूरंति । दगदा, तुंगत्तणेण निलयं न पावेंति ॥८६॥ जह मायंगा संगहसि विंझ ! तह य जइ मयवई एक्को । जीवंतस्स न कीरइ वंसच्छेओ पुलिंदेहिं ॥ ८७ ॥ ससहर हरिणहाणि जइ सीहसिलिंबु घरंतु | ता दुक्करु तुह राहु ! जइ माणुम्मलण करंतु ॥ ८८ ॥ पालित्तय! कहसु फुडं सयलं महिमंडलं भमंतेण । दिट्ठो सुय व्व कत्थ व चंदणरससीयलो अग्गी ? ॥८९॥ अयसाभियोगसंतावियस्स पुरिसस्स सुद्धसीलस्स । होइ वसंतस्स फुडं चंदणरससीयलो अग्गी ॥९०॥ सुयणो सुद्धसहावो मइलिज्जतो वि दुज्जणजणेण । छारेण दप्पणो इव अहिययरं निम्मलो होइ ॥ ९१ ॥ जं उप्पलस्स पत्तेण छिज्जए किं थ सत्थमग्गेण ? | महुरम्मि भाणियव्वे किं ते कडुएण भणिएण ? ॥९२॥ अणुयत्तह, भणह पियं, जं कज्जं तं मुणेह हियण । महुरं लवइ मयूरो सविसं च भुयंगमं खाइ ॥९३॥ जंपसि (सु) मुणालसरिसं, जं कज्जं तं मुणेहि हियण । महुरं लवइ मयूरो सविसं च भुयंगमं खाइ ॥९४॥ कज्जम्मि समावडिए अणुयत्तइ दुज्जणं पि दुस्सीलं । कीस न पिज्जs निंबो सरीरसंरक्खणट्ठाए ? ॥९५॥ जेण विणा न दलिज्जइ अणुणिज्जइ सो कयावराहो वि । पत्ते विनयरदा भण कस्स न वल्लहो अग्गी ? ॥ ९६ ॥ सरिसे वि मणुयजम्मे डहइ खलो, सज्जणो सुहावेइ । लोहं चिय सन्नाहो रक्खइ जीयं, असी हरइ ॥९७॥ सरिसे व जलणदाहे गंडं चुंबंति कणयपत्ता | ओoes नेउरं सामलीए चलणोवरि विलग्गं ॥ ९८ ॥ १० Jain Education International For Private & Personal Use Only ७३ www.jainelibrary.org

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