Book Title: Gacchayar Painnayam
Author(s): Trilokmuni
Publisher: Ramjidas Kishorchand Jain

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Page 6
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सुगच्छवासफलम् लीलाअलममाणस्स, निरुच्छाहस्म वीमणं । पक्खाविक्वीइ अन्नेसि , महाणुभागाण साहूणं ॥ ४ ॥ उज्जमं सव्वथामेसु, घोरवीरतवाइअं । लज्ज संकं अइक्कम्म, तस्स वीरित्रं समुच्छले ।। ५ ।। हे गौतम ! आधपहर, पहर, पक्ष, मास तथा वर्षभर अथवा इस से भी अधिक समय के लिये सन्मार्गगामी गन्छ में रहने से यह लाभ होता है कि यदि किसी को आलस्य आजाये, धर्मक्रियाएं करते हुए उसका उत्साह भंग हो जाए और मन चिन्न हो जाए तो ऐसी अवस्था में वह गच्छ में अन्य धर्मक्रियारत महाभाग्यवान साधुओं को देख कर तप आदि सर्वक्रियाओं में घोर उद्यम करने लग जाता है और इस प्रकार उद्यम करता हुआ, उसके मन में कार्य करने की जो लज्जा और पुरुषार्थ न करने की जो हिचकचाहट होती है उस को तिलाञ्जलि दे देता है और उन को आत्मा में वीरता का संचार हो जाता है ।। लीलालसायमानस्य. तिरुत्साहज्य विमनस्कस्य । पश्यतः अन्येषां महानुभागानां साधूनाम् ॥४॥ उद्यमं सर्वस्थामसु, घोरवीरतपादिकम । लज्जां शङ्कामतिक्रम्य, तस्य वीर्य सा छलेत ॥ ५॥ _ 'महानुभागाण" "साहूण" शब्दयोः क्त्वा स्यादेणस्वोर्वा' ।।८।१।२७।। इति सूत्रेण विकल्पना स्वारः । "वीरिअं" 'स्याद -भव्य-सत्व-चाय सोप यात्' ।।२।१०। इति सूत्रेण यात् पूर्व इकारः, 'क-ग-च-ज-त-द-५-य-वां' इति सूत्रेण यकारस्य तुक । For Private And Personal Use Only

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