________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
गच्छायार पइएणयं
ब्रह्मचर्य की निर्मलता कैसे टिक सकती है ? अर्थात् नहीं टिक सकती। जत्थ य उवस्सयानो, बाहिं गच्छे दुहत्थमिपि । एगा रति समणी, का मेरा तत्थ गच्छस्स ॥१०॥
जिस गच्छ के रहने वाली साध्वी रात्रि के समय मात्रा आदि के कारण उपाश्रय के बाहर दो कदम भी अकेली जाती है, तो उस गच्छ में क्या मर्यादा रही ? अर्थात् वह गच्छ मर्यादाविहीन है। जत्थ य एगा समणी, एगो समणो य जंपए सोम्म!। निप्रबंधुणावि सदि, तं गच्छं गच्छगुणहीणं ।। १०६ ।।
हे सौम्य गौतम ! जिस गच्छ में अकेली साध्वी अपना सगा भाई, जो कि साधु बना हुआ है उस से और इसी प्रकार अकेला साधु अपनी बहिन जो कि साध्वी बनी हुई है उस से वार्तालाप करता है तो वह गच्छ, गच्छ के गुणों से रहित है।
यत्र चोपाश्रयात् , बहिर्गच्छेत् द्विहस्तमात्रमपि। एकाकिनी रात्रौ श्रमणी, का मर्यादा तत्र गच्छे ॥ १०८ ॥
"रति" 'सप्तम्या द्वितीया' ॥१३॥१३७॥ इति सूत्रेण सप्तम्याः स्थाने द्वितीया॥
यत्र चैका श्रमणी, एकः श्रमणश्च जल्पते सौम्य !। निजबन्धुनाऽपि साद्ध, स गच्छः गच्छगुणहीनः ॥ १०६ ।।
For Private And Personal Use Only