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गच्छायार पइएर
बहु पो उच्छोलिती, मुहनयणे हत्थपायकक्खाओ । गिण्हेइ रागमंडल, भोइति तह य कब? ॥१२२।। __वे वार वार अपने हाथ मह आंख पांव तथा कक्षाओं को धोती हैं नाना प्रकार की राणियों को सीखती हैं तथा गृहस्थों के बच्चों में रमण करती हैं उन्हें खाने की वस्तुएं देती हैं और अपना दिल बहलाती हैं। इन दोषां से युक्त आर्या, आर्या नहीं अपितु अनार्या हैं तथा स्व छन्दाचारिणी हैं। जत्थ य थेरी तरुणी, थेरी तरुणी अ अन्तरे सुबह । गोश्रम ! तं गच्छवरं, वरनाणचरित्ताहारं ॥१२३।।
जिस गच्छ में शयन करते समय यह क्रम ध्यान में रखा जाता है कि पहले स्थविरा (वृद्धा) साध्वी इस के पश्चात् युवावस्था वाली साध्वी उस के पश्चात् फिर वृद्धा और उस के पश्चात् पुनः तरुण-साध्वी, इस क्रम से अन्तर के साथ जहां तरुण साध्विएं सोती हैं, हे गौतम ! वह गच्छ श्रेष्ठ है और ऐसा गच्छ साधक आत्माओं के ज्ञान एव चारित्र का आधार होता
बहुशः प्रक्षालयन्ति, मुखनयनानि हस्तपादकक्षाश्च । गृह्णन्ति रागमंडलं, भोजयन्ति तथा च कल्पस्थान् ॥१२२॥ यत्र च स्थविरा तरुणी, स्थविरा तरुणी चान्तरे स्वपिति । गौतम ! स गच्छवरः, वरज्ञानचारित्राधारः ॥ १२३ ॥
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