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गच्छायार पइएण्यं गृहस्थों के सदृश सावद्य एवं खुशामदभरे वाक्य नहीं बोले जाते ऐसी साधिए ही गन्छ की शामा का बढ़ाता है और वहीं श्रेष्ठ गच्छ है॥ जो जत्तो वा जानो, नालोअइ दिवपक्विनं वावि । सच्छंदा ममणीयो, मयहरिआए न ठायति ॥ ११८॥ . स्वच्छन्दाचारिणी आर्यकाएं जो अतिचार जहां और जैसे लगे है, उन दैवतिक, रात्रिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक तथा सांवत्सरिक अतिचारों की आलोचना नहीं करतीं और अपनी मुख्य साध्वी की आशा में नहीं रहती हैं । विटलिपाणि पउति, गिलार सेहणी नेव तिप्पंति । अणगाढे आगाढं, करेंति आगाढि अणगार्ड ।। ११६॥
वे स्वच्छन्दाचारिणी आर्यकाएं यन्त्र मन्त्र तथा अष्टांग निमित्त आदि का प्रयोग करती हैं और म्लान तथा नवदीक्षिता आदि की आहार पानी तथा औषध आदि से सेवा सुश्रूषा
यो यतो वा जातः, नालोचयन्ति देवसिकं पाक्षिकं वापि । स्वच्छन्दाः श्रमण्यः, महत्तरिकाया न तिष्ठन्ति ।। ११८ ॥
"जत्तो' 'जो दो तसो वा' ||१६०॥ इति सूत्रेण तसः प्रत्ययस्य स्थाने 'तो' प्रादेशः ॥ विएटलिकानि प्रयुञ्जते, ग्लानशैक्ष्यान् न तर्पयन्ति । अनागाढे आगाद, कुर्वन्ति आगाढे अनागाढम् ॥११६।।
"गिलानसेहीण" 'कचिद् द्वितीयादेः' ।। ८।३।१३४ ॥ इति सूत्रेण द्वितीयस्य स्थाने पाठी।
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