Book Title: Gacchayar Painnayam
Author(s): Trilokmuni
Publisher: Ramjidas Kishorchand Jain

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Page 54
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir साध्वीस्वरूपनिरूपण नहीं कर पातीं। जो कार्य प्रथम अवश्य करणीय स्वाध्याय प्रतिलेखना प्रतिक्रमण आदि हैं उन को करती नहीं और जो इतने आवश्यक नहीं उन के करने में अपना समय लगाती रहती अजयणाए पकुवति, पाहुणगाण अवच्छला । चित्त नयाणि असेवंते, चित्ता रयहरणे तहा ॥१२०॥ वे प्रत्येक मंयमक्रिया अयन-अविवेकपूर्वक करती हैं. अन्य ग्राम आदि से आई हुई सध्वियों की आहार पानी आदि से यथायोग्य आदर सत्कार नहीं करतीं, वे नाना प्रकार के रंगविरंगे वस्त्र तथा विचित्र रचना वाला रजोहरण रखती हैं। गइ विब्भमाइएहि, ओगारविगार तह पगासति । जह वुडहाणवि मोहो, समुईरइ किं नु तरुणाणं १ ॥१२१॥ उन की गति में तथा उठने बैठने आदि में विलासता की बू आती है और वे इस प्रकार के हावभाव दिखलाती है कि बड़ी आयु वाले वृद्धपुरुषों के मन में भी विकार उत्पन्न हो जाए और युवानों का तो कहना ही क्या ? ॥ प्रयतनया प्रकुर्वन्ति, प्राधूर्णिकानां अवत्सला। चित्रलानि च सेवन्ते, चित्राणि रजोहरणानि तथा ॥१२०।। गतिविभ्रमादिभिः, आकारविकार तथा प्रकाशयन्ति । यथा वृद्धानां मोहः, समुदीर्यते किं नु तरुणानाम् ॥ ॥१२॥ For Private And Personal Use Only

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