Book Title: Gacchayar Painnayam
Author(s): Trilokmuni
Publisher: Ramjidas Kishorchand Jain

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Page 57
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ५४ गच्छायार पइरणयं सज्झायमुक्कजोगा, धम्मका विगह पेसा गिहीणं । गिहिनिसिसज्जं बाहिति, संथवं तह करतीओ ||१२६|| जिन आर्यकाओं ने शास्त्र की स्वाध्याय छोड़ रखी है और धर्मकथा में ही लगी रहती है तथा विकथा करती हैं - गृहस्थों से यहीं बातचीतों में अपना समय व्यतीत करती हैं तथा उनको गृहस्थ सम्बन्धी कार्यों के करने के लिये प्रेरणा रहती हैं गृहस्थों के घरों में जाकर बैठती हैं और उन से अधिक संस्तव परिचय बढ़ाती हैं, हे गौतम! वे आर्यकाएं केवल अपने पेट को ही भरने वाली है वे वास्तव में आर्यकाएं नहीं हैं ।। Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नोट – ये सब बातें साधुओं पर भी समान रूप से लागू होती हैं । जो. साधु ऐसा करते हैं वे भी केवल पेटू हैं और जिन शासन में वे साधु नहीं कहला सकते || समा सीसपडिच्छीणं, चोणासु खालसा | गणिणी गुणसंपन्ना, पसत्थपुरिसागा ॥ १२७ ॥ संविग्गा भीयपरिसा य, उग्गदंडा य कारणे । सज्झायज्झाणजुत्ता य, संगहे अ विसोरया ॥ १२८ ॥ स्वाध्याय मुक्तयोगाः, धर्मकथाविकथा प्रेषणं गृहिणाम् । गृहिनिषद्यां वाहयन्ति, संस्तवं तथा कुर्वन्त्यः ॥ १२६ ॥ समा शिव्यप्रतीच्छिकानां, नोदनासु अनलसा । गणिनी गुणसम्पन्ना, प्रशस्तपुरुषानुगता ।। १२७ ।। संविग्ना भीतपरिषत् च, उमदण्डा च कारणे । स्वाध्यायध्यानयुक्ता च संप्रहे च विशाग्दा ॥१२८॥ For Private And Personal Use Only

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