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गच्छायर पइएणयं
जहां आर्यका और साधु परस्पर (अथवा साधु साधु आपस में या आर्यका आर्यका एक दूसर से ) उत्तर प्रत्युत्तर में पड़ जावे और बड़े आवेश में आकर एक दूसरे को उत्तर देते चले जावें, हे गौतम ! ऐसे गच्छ से क्या लाभ है ? अर्थात् कोई लाभ नहीं है ॥ जत्थ य गच्छे गोयम ! उप्पएणे कारणमि अज्जाओ। गणिणीपिहिटिमाओ, भासंति मउअसण ॥१३०॥
प्रथम तो आर्यका को विना कारण साधु से वार्ताजाप करनी ही नहीं चाहिये, यदि कारण पड़ने पर ऐसा प्रसंग आजाए तो उसे अपने से बड़ी मुल्य साध्वी को आगे करके थोड़े शब्दों में सहज, सरल एवं निविकारता पूर्वक स्थविर अथवा गीतार्थ साधु से ही विनय के साथ बोले ऐसा जहां होता हो उस का नाम गच्छ है। माऊए दुहिआए, सुण्डाए अहव भइणिमाईणम् । जत्थ न प्रज्जा अक्खड़, गुनिविमेयं तयं गच्छम् ।।३१॥
तथा जो साध्वी, अपने संसारी सम्बन्धियों के नाम, यह मेरी माता है यह मेरी लड़की है, यह मेरी स्नुषा है, यह मेरी
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यत्र च गच्छे गौतम !, उत्पन्ने कारणे आर्याः । गणिनीपृष्ठस्थिताः, भाषन्ते मृदुकशब्देन ॥ १३० ॥ मातुः दुहितुः, स्नुषायाः अथवा भगिन्यादीनाम् । यत्र न आर्या श्रार याति, गुप्तिविभेदं सको रच्छः ॥१३।।
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