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साध्वीस्वरूपनिरूपण
बहन है अथवा मैं इस की माता हू मैं इस की लड़की हूँ आदि वचन विना कारण लोगों में प्रकट न करती हो और उन के मर्मो का उद्घाटन न करती हो, ऐसी वचन-गुप्ति वाली आर्यकाओं के समूह का नाम ही गग्छ है ॥ दंसणियारं कुणई, चरित्तना जणेइ मिच्छतम् । दुहवि वग्गाणज्जो, विहारमेयं करेमाणी ॥१३२।।
जो आर्यका दर्शन में अतिचार दोष लगाने वाली और मिथ्यात्व को बढ़ाने वाली है तथा दोनों पक्षों में अर्थात् अपने तथा साधओं के चारित्र में शैथिल्य लाने वाली है और जिनोक्तमार्ग से भटकाने वाली है, वह वास्तव में आर्यका नहीं है। तम्मूलं सारं, जणेइ अज्जा वि गोयमा ! नूणं । तम्हा धम्मुवएसं, मुत्तुं भन्न न भासिज्जा ॥१३३॥
हे गौतम ! जिनोक्तमार्ग से भटकी हुई पार्यका भी निश्चय रूप से साधु के लिये संसार का कारण बन जाती है इस लिये
आर्यकाओं से धर्मोपदेश से अतिरिक्त अन्य वार्तालाप न करनी चाहिये।
दर्शनातिचारं करोति, चारित्रनाशं जनयति मिथ्यात्वम् । द्वयोरपि वर्गयोरार्या, विहारभेदं कुर्वाणा ॥ १३२ ।। तन्मूलं संसार, जनयति मार्याऽपि गौतम ! नूनम् । तस्माद् धर्मोपदेश, मुक्त्वा अन्यत् न भाषेन ।। १३३ ।।
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