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गमछायार 'पइएणयं
जत्थ य मुणिणो, कयविकमाई कुवंति संजमुभटठा । तं गच्छं गुणसायर ! विसं व दूरं परिहरिन्जा ।।१०३॥ __जिस गच्छ के मुनिगण वस्त्र, पात्र, पुस्तक आदि के क्रयविश्य में फंस कर सयम मे भ्रष्ट हो चुके हैं । हे गुणों के सागर गौतम ! उस गच्छ को विष समान समझ कर दूर से ही छोड़ देना चाहिये।
आरंभेसु पसत्ता. सिद्धतपरंमुहा विसयगिद्धो । मुत्तमुणिणो गोयम !, वसिज्ज मज्झे सुविहियाणम् ॥१०४
जो साधु प्रारम्भ समारम्भ के कार्यों में आसक्त हैं और वे उन को छोड़ने के लिये तय्यार नहीं हैं । सिद्वान्त से विपरीत मार्ग पर जा रहे हों और काम भोगों में गृद्धित हों, हे गौतम ! ऐसे दुष्ट स्वभाव वाले साधुओं को छोड़ कर सुविहित आत्मा=अल्मार्थी साधुओं के समुदाय में रहना चाहिये ।। तम्हा सम्मं निहालेउ, गच्छं सम्मग्गपटिठयम । वसिज्ज पक्खमासं वा, जावज्जीवं तु गोयमा !!१०५||
इस लिये हे गौतम ! जो गच्छ सन्मार्ग पर प्रतिष्ठित है, ऐसे
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यत्र च मुनयः, क्रयविक्रयादि कुर्वन्ति संयमोभ्रष्टाः । तं गच्छ गुण सागर ! विषमिव दूरतः परिहरेत् ।। १०३ ।। आरम्भेषु प्रसक्तान् , सिद्धान्तपराङ्मुखान् विषयगृद्धान् । मुक्त्वा मुनीन् गौतम !, वसेत् मध्ये सुविहितानाम् । ॥१०४।। तस्मात् सम्यक निभाल्य, गच्छ सन्मार्गस्थितम् । बसेत् पक्षो मासं वा, यावज्जीवं तु गौतम ! ॥ १०५ ।।
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