Book Title: Gacchayar Painnayam
Author(s): Trilokmuni
Publisher: Ramjidas Kishorchand Jain

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Page 46
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir साधुस्वरूपनिरूपण जत्थ य गोयमा ! पंचएह, कहवि सूणाण इक्कमपि हुञ्जा। तं गच्छं तिविहेणं, वोसिरिअ वइज अन्नत्थ ।। १०१ ।। __ हे गौतम ! जिस गच्छ के मुनि आहार शरीर एवं उपधि आदि में आसक्त होकर गृहस्थोचित चक्की,चुल्हा, प्रमार्जनी, ऊखल तथा जलकुम्भ आदि में से एक का भी आरम्भ समाराम्भ करते हैं, तो उस गच्छ में काया से तो क्या, मन से भी रहने का सङ्कल्प न करे ,तीन करण तीन योग से उस गच्छ को छोड़ कर किसी और सद्गुणी गच्छ में चला जावे ॥ सूरणारंभपवत्तं, गच्छ वेसुजलं न सेविजा । जं चरित्तगुणेहि, तु उज्जलं तं तु सेविज्जो ॥ १०२॥ । जिस गच्छ के साधु आरम्भप्रवृत्ति में लगे हुए हैं और बगुले समान श्वेतवस्त्रधारी केवल ऊपर से उज्ज्वल बन कर रहते हैं किन्तु अपने चारित्र के गुणों से जिन की आत्मा उज्ज्वल नहीं हो पाई है, अपितु काली ही है तो उन के साथ नहीं रहना चाहिये । तथा जिन की आत्मा साधना पथ पर आरूढ है और जिन में आत्मिक उज्ज्वलता वेग से नहीं, तो धीरे धीरे ही आरही है उन के सहवास में रहना उचित है। यत्र च गौतम ! पञ्चाना, कथमपि सूनानामेकमपि भवेत् । तं गच्छं त्रिविधेन, व्युत्सृज्य व्रजेत् अन्यत्र ।। १०१ ॥ सूनारम्भप्रवृत्तं, गच्छं वेषोज्ज्वलं न सेवेत्। यश्चारित्रगुणैः, तूज्ज्वलस्तं तु सेवेत् ॥ १०२ ।। For Private And Personal Use Only

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