Book Title: Gacchayar Painnayam
Author(s): Trilokmuni
Publisher: Ramjidas Kishorchand Jain

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Page 41
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गच्छायार पइएणयं जिस गच्छ के मुनिगण, सोना चान्दी, धन धान्य तथा कांसी ताम्बा एवं स्फटिकरत्नमय भाजन और कुर्सी पलंग चारपाई तथा छिद्रों वाली चौकी एवं फट्ट का परिभोग करते हों और श्वेतवर्ण के वस्त्रों को छोड़ कर लाल नीले पीले वस्त्र पहनते हों तो उस गच्छ की क्या मर्यादा रह जाती है ? अर्थात् वह गच्छ मर्यादाहीन जत्थ हिरएणसुवण्णं, हत्थेण परागपि नो छिप्पे । कारणसमप्पियं पि हु, निमिसखण, पित्तं गच्छम् ।।१०।। कोई गृहस्य किसी भय के कारण अथवा स्नेह के वशीभूत होकर साधु को अपना सोना चान्दी समर्पण करे जिस गच्छ के साधु उस सोने चांदी को, पर का ही समझ कर अर्धानमेषमात्र अर्थात् क्षणभर के लिये भी उसे हाथ से स्पर्श तक नहीं करते वह वास्तविक गच्छ है ।। जत्थ य अज्जालद्धं, पडिगहमाईवि विविहमुवगरणम् । परिभुज्जइ साहूहि, तं गोयम ! केरिस गच्छम् ? ॥११॥ । जहां पात्र आदि उपकरण विना कारणविशेष, आर्यकाओं से लेकर साधु अपने उपभोग में लाते हैं, हे गौतम ! वह कैसा विचित्र गच्छ है ? अर्थात् वह वास्तविक गच्छ नहीं है ।। यत्र हिरण्यसुवर्णं, हस्तेन परकीयमपि न स्पृशेत् । कारणसमर्पितेऽपि हु, निमेषक्षणार्द्ध मपि स गच्छः ॥ ६ ॥ यत्र चार्यालब्ध, पतग्रहाद्यपि विविधमुपकरणम् । परिभुज्यते साधुभिः, स गौतम ! कीदृशो गच्छः ? ॥१॥ For Private And Personal Use Only

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