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साधुस्वरूपनिरूपण
इदुल्लाहसज्जं, बलबुद्धिविवपि पुट्टिकरम् । अज्जालद्धं भज्जर, का मेरा तत्थ गच्छम्मि ? ॥६२॥
शारीरिक बल तथा बुद्धि बल को बढ़ाने वाली एवं पुष्ट करने वाली अति दुर्लभ औषध, यदि श्रार्यकाओं से प्राप्त करके सेवन की जाती है तो उस गच्छ की क्या मर्यादा है ? अर्थात् वह गच्छ अपनी मर्यादाओं का उल्लङ्घन कर रहा है । और वास्तविक गुणां से दूर होता जा रहा है ।।
गच्छ
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एगो एगिथिए सद्धि, जत्थ चिटिठज्ज गोथमा ! । संजइए विसेसेणं, निम्मेरं तं तु भासिमो || ६३ ॥
जहां अकेला साधु अकेली स्त्री से और विशेषकर अकेली श्रार्यका से बातचीत करता है तो हे गौतम ! वह गच्छ अपनी मर्यादा से बाहर समझना चाहिये ||
उपरोक्त गाथा में अकेली आर्यका से संलापमात्र का सर्वथा निषेध किया है इसी विषय को और अधिक स्पष्ट करने के लिये प्रन्थकार कहते है
अतिदुर्लभभैषज्यं, बलबुद्धिविवर्धनमपि पुष्करम् । अर्यालब्धं भुज्यते, का मर्यादा तत्र गच्छे ॥ ६२ ॥ एक एकस्त्रिया साद्ध, यत्र तिष्ठेत् गौतम ! | संयत्या विशेषेण, निर्मर्यादं तं तु भाषामहे ।। ६३ ॥
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