________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
गन्छाग्रार पइएणयं
दढचारिनं मुनं, प्राइज मयाइहरं च गुणरासि इक्को अज्झावेई, तमणायारं न त गच्छम् ।। १४ ॥ ___ जो चारित्र में दृढ, निर्लोभात्मा, आदेय वचन वाली अर्थात जो जनता में आदर प्राप्त है,ऐसी महामति वाली गुणों की खान जो सर्व साध्वियों की स्वामिनी है, उस को एकाकी साधु पढ़ाता है तो वह पढ़ाने वाला साधु और पढ़ने वाली आर्य का दोनों अनाचार का सेवन करते हैं। घणगजियहयकुहए-विज्जूदुग्गिज्जगूढहिययाओ। अजा अवारियाओ, इत्थीरजं न तं गच्छम् ॥ ६५!!
बादल के गर्जने, घोड़े के पेट की वायु एवं बिजली के चमकारे का जैसे पता नहीं चलता इसी प्रकार कूट कपटयुक्त हृदय वाली आर्यका जहां स्वच्छन्दाचारिणी हो और अपनी मनमानी करती हो,—उसे उलटे मार्ग से कोई रोकने वाला न हो, तो समझना चाहिये कि वहां स्त्रीराज्य है, वस्ततुः वह गच्छ नहीं
टिप्पणी-यहां कपट तथा स्वच्छन्दता की अपेक्षा ने स्त्रीराज्य नाम दिया गया है । इसी प्रकार जहां साधु स्वच्छन्दाचारी हों
दृढचारित्रां मुक्तां, आदेयां महत्तरां (मतिगृह) च गुणराशिम् । ' एकाकी अभ्यापयति, सोऽनाचारः न स गच्छः ॥ ६४ ॥
"मइहरं" 'गृहस्य घरोपतौः' ।।८।२।१४४।। इति सूत्रेण गृहस्य घरादेशः, 'ख-घ-थ-भाम्' ।।८।१।१८७|| इति सूत्रेण घस्यः ह ।।
घनगर्जितहयकुहक-विटा दुह्यगूढहृदयाः । प्रार्या अवारिताः, स्त्रीराज्यं न स गच्छः ।। ६५ ।।
For Private And Personal Use Only