Book Title: Gacchayar Painnayam
Author(s): Trilokmuni
Publisher: Ramjidas Kishorchand Jain

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Page 33
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३० गच्छायार पइरणयं सव्वत्थ इत्थवमि, अप्पमत्तो सया वीसत्थो । || नित्थरह बंभचेरं, तव्विवरीओ न नित्थर || ६७ ॥ सव्वत्थेसु विमुत्तो, साहू सव्वत्थ होइ अप्पवसो । सोहो वसो, अज्जाणं अणुचरंतो उ ॥ ६८ ॥ खेतपमिप्पाणं, न तरह जह मच्छित्रा विमोएउ | जाणुचरो साहू, न तर अप्पं विमोउ || ६ स्त्री वर्ग में जो सदा अप्रमत्त होकर रहता है और उन का विश्वास नहीं करता, वह ही पूर्ण शुद्ध ब्रह्मचर्य का पालन कर सकता है अन्यथा नहीं। ऐसा साधक सब पदार्थों से अपनी आसक्ति घटा सकता है और वह निज आत्मा को अपने वश में कर लेता है । इसके विपरीत जो साध्वियों के पाश में बंध जाता है अर्थात् उन के कथनानुसार कार्य करता है तो वह अपनी आत्माकी स्वतन्त्रता को खोकर, परतन्त्र बन जाता है । जिस प्रकार श्लेष्म में पड़ी मक्षिका अपने आप को नहीं छुड़ा सकती इसी प्रकार साध्वी अर्थात् स्त्री के बन्धन में फंसा हुआ साधु संसार समुद्र से पार नहीं हो सकता । सर्वत्र स्त्रीवर्गे, अप्रमत्तः सदा अविश्वस्तः । निस्तरति ब्रह्मचर्यं तद्विपरीतो न निस्तरति ॥ ६७ ॥ सर्वार्थेषु विमुक्तः, साधुः सर्वत्र भवति आत्मवशः । सभवति श्रनात्मवशः, आर्याणामनुचरन् तु ||६|| श्रष्मपतितमात्मानं न शक्नोति यथा मक्षिका विमोचयितुम् । आर्यानुचरः साधुः, न शक्नोति आत्मानं विमोचयितुम् ॥६६॥ "तरइ" ' शकेश्चय - तर - तीर - पाराः ||८|४|८६॥ इति सूत्रेण शकधातोस्तरादेशः ॥ For Private And Personal Use Only

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