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गच्छायार पइएणयं जत्थ य अज्जाकप्पो, पाणच्चाए वि रोरदुभिक्खे । न य परिभुज्जइ सहसो, गोयम ! गच्छं तयं भणियम ६१
भयंकर दुष्काल होने पर यदि प्राणत्याग का कष्ट भी क्यों न आन पड़े फिर भी जिस गच्छ के साधु विना विचारे सध्वियों का लाया हुआ आहार पाणी ग्रहण नहीं करते, हे गौतम ! वास्तव में वही गच्छ है ॥ जत्थ य अजाहिं सम, थेरा वि न उलयंति गयदसणा। न य झायंति थीणं, अगोवंगाइ तं गच्छम् ।। ६२ ।।
जिस गच्छ के स्थविर, जिन के दान्त निकल गए हैं, इतने वृद्ध होने पर भी जो साधियों से व्यर्थ वार्तालाप नहीं करते और उन के अंगोपांग को सराग दृष्टि से नहीं देखते वही वास्तव में गच्छ है ॥ वज्जेह अपमत्ता!, अज्जासंसग्गि अग्गिविससरिस । अज्जाणुचरो साहू, लहइ अकित्ति खु अचिरेण ।। ६३ ।।
हे अप्रमत्त मुनिवरो ! साध्वियों के संसर्ग को अग्नि तथा विष के सदृश समझो। जो इन का संसर्ग करता है वह शीत्र ही निन्दा का पात्र बनता है।
यत्र चार्याकल्पः, प्राणात्ययेऽपि रौद्रदुर्भिक्षे। न च परिभुज्यते सहसा, गौतम ! गच्छः सको भरिणतः ॥६१ ।। यत्र चार्याभिः समं, स्थविरा अपि नोल्लपन्ति गतदशना । न च ध्यायन्ति स्त्रीणा-मङ्गोपाङ्गानि स गच्छः ॥ ६ ॥ वर्जयत अप्रमत्ताः, आर्यास सर्ग अग्निविषसहशं । आर्यानुचरः साधुः, लभते अकीर्ति खलु अचिरेण ।। ६३ ।।
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