Book Title: Gacchayar Painnayam
Author(s): Trilokmuni
Publisher: Ramjidas Kishorchand Jain

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Page 35
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ३२. गच्छायार पइएायं मुणिं नायाभिग्गह, - दुक्करपच्छित्तमणुचरंताणं | जायइ चित्तचमक्क, देविदाणं वि तं गच्छम् ॥ ७४ ॥ जिस गच्छ के साधु रात्रि में अशन आदि रखना संनिधि दोष के तथा औद्दे शिक और अभ्याहत आदि दोषों के नाममात्र से अर्थात् स्पर्शमात्र से भय खाते हों, आहार निहार की क्रियाओं में उपयोगवान हो, विनयवान, निश्चल स्वभाव वाले, हंसी-मस्करी के न करने वाले, उतावलेपन से रहित, चारों विकथाओं से दूर रहते वाले, विना विचारे कोई कार्य न करने वाले तथा गोचरी कलिये योग्य भूमि में ही परिभ्रमण करने वाले हों। तथा नाना प्रकार के अभिग्रह एवं दुष्कर प्रायश्चित के अनुमानों को करते हुए साधुओं को देख कर देवों के स्वामी इन्द्र भी जहां चकित रह जाएं, वास्तव में गच्छ तो वही है । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पुढविदगगणिमारु- वास्सइतसारा विविहाणं । मरणंतेवि न पीडा, कीरड़ मणमा तयं गच्छम् ॥७५॥ पृथ्वी काय अप काय, ते काय वायु तथा वनस्पात काय एवं इन्द्रिय दिवस काय के जीवों को स्वयं की मृत्यु सामने होने पर भी जहां मन के द्वारा भी पीड़ा न पहुँचाई जाती हो अर्थात सब जीवों को अपनी आत्मा के समान समझा जाता हो, वह वस्तुतः गच्छ है || मुनीन् नानाभिग्रह - दुष्कर प्रायश्चितमनुचरतः (दृष्ट्रा ) । जायते चित्तचमत्कारो, देवेन्द्राणामपि स गच्छः ॥ ७४ ॥ पृथिवीदकाग्निमारुत - वनस्पतिन्त्रसानां विविधानाम् । मरणान्तेऽपि न पीडा, क्रियते मनसा सको गच्छः ॥७५|| For Private And Personal Use Only

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