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साधुस्वरूपनिरूपण
खज्जूरिपत्तमुजेख, जो पमज्जे उवस्सयम् । नो दया तस्स जीवेसु, सम्मं जाणाहि गोमा ! || ७६ ॥
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जो साधु खजूर के पत्तों अथवा मुंज की बनी हुई बुहारी से उपाश्रय की प्रमार्जना करता है तो हे गौतम! उस साधु के दिल में दया का भाव है ||
जत्थ य बाहिरपाणि - विदुमित्तंपि गिम्हमाईसु । तरहासोसिश्रपाणा, मरणे वि मणी न गिरहंति ॥७७॥
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ग्रीष्मादिक ऋतु में प्यास के मारे कण्ठ सूखा जारहा हो, प्राण निकले चाहते हों, मृत्यु सामने नृत्य कर रही हो ऐसी अवस्था में भी जो साधु कूप, तडाग, बावड़ी आदि के सचित्त जल की बिन्दुमात्र भी न प्रहण करता हो ऐसे दृढप्रतिज्ञ साधुओं से युक्त गच्छ ही वास्तव में गच्छ है ।
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इच्छिज्जइ जत्थ सया, बीयपणावि फासूर्य उदयम! आगमविहिणा निउणं, गोत्रम ! गच्छं तयं भणियम् ॥७८॥ जिस गच्छ के साधु अपवाद मार्ग में भी अच्छी तरह
खर्जूर पत्रेन मुब्जेन, यः प्रमार्जयति उपाश्रयम् ।
न दया तस्य जीवेषु सम्यग् जानीहि गौतम ! ॥ ७६ ॥
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यत्र च बाह्यपानीय - बिन्दुमात्रमपि प्रीष्मादिषु । तृष्णाशोषितप्राणा मरणेऽपि मुनयो न गृह्णन्ति ॥ ७७ ॥ इष्यते यत्र सदा, द्वितीयपदेनापि प्रासुकमुदकम् । आगमविधिमा निपुणं, गौतम ! गच्छः सको भगितः ॥७८॥ |