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साधुस्वरूपनिरूपण साहुस्स नत्थि लोए, अज्जासरिसी हु बंधणे उवमा । धम्मेण सह ठवतो, न य सरिसो जाण असिलेसो ||७०॥
साधु के लिये इस संसार में साध्वी के सदृश और कोई बंधन नहीं और धर्म से पतित होती हुई किसी साधक आत्मा को पुनः धर्म में स्थापन करने जैसी निर्जरा नहीं। वायामित्तण वि जत्थ, भहचरित्तस्स निग्गहं विहिणा। बहुलद्धिजुअस्मावि, कीरइ गुरुणा तयं गच्छम् ।७१ ॥
जो वचनमात्र से चारित्रभ्रष्ट हो गया है भले ही वह बहुलब्धियुक्त है, जहां उस का भी विधिपूर्वक निग्रह किया जाता है अर्थात् उसे प्रायश्चित दिया जाता है, वह सदाचारी गच्छ है । जत्थ य संनिहिउक्खड-आहडमाईण नामगहणे वि। पूईकम्मा भीआ, आउत्ता कप्पतिप्पेसु ॥ ७२ ।।. मउए निहुअसहावे, हासदवविवज्जिए विगहमुक्के । असमंजसमकरते, गोअरभूमह विहरति ।। ७३ ।।
साधो स्ति लोके, आर्यासदृशी हु बन्धने उपमा । धर्मेण सह स्थापयन्, न च सहशो जानीयात् अश्लेशः ।।७०॥ वाङमात्रेणापि यत्र, भ्रष्टचारित्रस्य निग्रहं विधिना। बहुलब्धियुक्तस्यापि, क्रियते गुरुणा सको गच्छः ॥७१।। यत्र च सनिधि-उपस्मृत-श्राहृतादीनां नामग्रहणेऽपि । पूतिकर्मणो भीताः, आयुक्ताः कल्पत्रेपेषु ।। ७२ ॥ मृदुकाः निभृतस्वभावाः, हास्यद्रवविवर्जिता विग्रहमुक्ताः । असमञ्जसमकुर्वन्तः, गोचरभूम्यर्थ विहरन्ति ॥ ७३ ।।
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