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साधुस्वरूपनिरूपण थेरस्स तवस्सिस्स व, बहुस्सुअस्स व पमाणभूयस्स । अजासंसग्गीए, जणजंपणयं हविज्जाहि ॥ ६४ ॥ किं पुण तरुणो अबहुस्सुअो अ, न य वि हु विगिट्टतवचरणो अज्जासंसग्गीए, जणपणयं न पाविज्जा ? ॥ ६५ ।। ___ जो वृद्धावस्था को प्राप्त हो गया है, तथा सदा कुछ न कुछ तप भी करना रहता है और बहुश्रुत है तथा उस के जीवन में प्रमाणिकता है अर्थात् जनता में सर्वमान्य है, यदि वह भी साध्वियों का संसर्ग करता है तो वह लोगों में निन्दा का पात्र बनना है; फिर वह साधु जो अवस्था से युवान हैं आगमरहस्य से रहित है और न ही विकृष्ट (तेला उपरान्त) तप करता है, भला यदि वह साध्वियों का संसर्ग करता है तो क्या उस की निन्दा न होगी? अर्थात् अवश्य होगी। जइवि सयं थिरचित्तो, तहवि संसम्गिलद्धपसराए । अग्गिसमीवे व घयं, विलिज्ज चित्तं खु अज्जाए ॥ ६६ ॥
यदि कोई साधु स्थिरमन वाला है फिर भी जिस प्रकार अग्नि के समीप ही होने पर घृत पिघल जाता है इसी प्रकार आर्यका के संसर्ग से उस के मन में विकृति आने की प्रबल सम्भावना है । स्थविरस्य तपस्विनो वा, बहुश्रुतस्य वा प्रमाणभूतस्य । आर्यासंसा , जनवचनीयता भवेत् ॥ ६४ ।। किं पुनस्तरुणोऽबहुश्रुतश्च, न चापि हु विकृष्टतपश्चरणः । आर्यासंसा , ननवचनीयतां न प्राप्नुयात् ? ।। ६५ ॥ यद्यपि स्वयं स्थिरचित्तः, तथापि संसर्गलब्धप्रसरया। अग्निसमीपे इव घृतं, विलीयते चित्तं खलु आर्यायाः ॥६६॥
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