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साधुस्वरूपनिरूपण वेगवेयवच्च, इरिअटठाए य संजमटटाए । तह पाणवतियाए, छटठं पुण धम्मचिंताए ।।५६|| ___ साधु छह कारणों से हार ग्रहण करता है. १. नुधावेदनीय को शान्त करने के लिये, २. गुरु, ग्लान, तथा बाल,वृद्व एवं तपस्वी
आदि की सेवा के लिये ३. ईर्यासमिति की शुद्धि के लिये ४. संयमनिर्वाह ५. प्राणधारण ६ स्वाध्याय तथा चिन्तन और मनन के लिये ॥ जत्थ य जिट्ठकणिट्ठो, जाणिज्जइ जिवयणबहुमाणो । दिवसेण वि जो जिठो, न य हीलिज्जइ स गोत्रमा ! गच्छो
जिस गच्छ में छोटे बड़े का लिहाज़ है । जो एक दिन भी दीक्षा में बड़ा है वह ज्ये ठ है, रत्नाकर है । जहां रत्नाकर की हीलना नहीं होती अपितु, उस के वचनों का आदर एवं बहुमान होता है, हे गौतम ! वही वास्तव में गच्छ है ।। ____साधु को साध्वियों से अधिक परिचय न बढ़ाना चाहिये अब इस विषय का वर्णन करते हैं
वेदनावैयावृत्येार्थ च संयमार्थम् ॥ . तथा प्राणवृत्त्यर्थम्, षष्ठं पुनो धर्मचिन्तार्थम् ।। ५६ ॥
"तह" 'वाव्ययोत्खातादावदातः' ।।८।१।६७॥ इति सूत्रेण आतो अत् ।।
यत्र च ज्येष्ठकनिष्ठी, ज्ञायेते ज्येष्ठवचनबहुमानः । दिवसेनापि यो ज्येष्ठः, न च हील्यते स गौतम ! गच्छः ॥६०
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