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साधुस्वरूपनिरूपण प्रलोभनों को छोड़ कर वैराग्यमार्ग पर आरूढ है तथा दश प्रकार की समाचारी का पालन करता है और अपनी आत्मा को प्रातःएवं सायं आवश्यक क्रिया करते हुए संयमयोग में लगाए रखता है ।। खरफरुसककमाए, अपिटठदुट्ठाइ निठुरगिराए । निभच्छणनिद्धाडण-माईहिं न जे पउस्मति ॥५४॥ जे अन अकिचिजाए, नाजसजणए नाकज्जकारी । न परयगुडडाहकरे, कंठग्गयपाणसेसे वि ।। ५५||
गुरु के कठोर शब्दों में शिक्षा देने पर यहां तक कि कठोर उपालम्भ देते हुए यदि गुरुजन अपने से अलग भी करते हों फिर भी, जो शिष्यगण द्वेषयुक्त नहीं होता हो और प्राणों के कण्ठ में आजाने पर भी अर्थात् मृत्यु समीप हो तब भी अपनी तथा भगवान के शासन की निन्दा कराने वाला कोई अकार्य न करता हो ऐसे साधुगण के बीच रहने वाला साधक अधिकाधिक निर्जरा करता है। गुरुणा कज्जमकज्जे, खरककसदुनिठुरगिराए । भरिए तहत्ति सीसा, भणंति तं गोयमा ! गच्छम् ।।५६॥
खरपपकर्कशया , अनिष्टदुष्ट्या निष्ठुरगिरा। निर्भर्त्सननिर्घाटना-दिभिः न ये प्रद्विषन्ति ॥ ५४ ॥ ये च नाकीर्तिजनकाः, नायशोजनकाः नाकार्यकारिणश्च । न प्रवचनोड्डाहकराः , कण्ठगतप्राणशेषेऽपि ॥ ५५ ॥ गुरुणा कार्याकार्ये , खरकर्कशदुष्टनिष्ठुरगिरा। भणिते तथेति शिष्याः, भणन्ति स गौतम ! गच्छः ।। ५६ ।।
"तहत्ति" 'वाव्ययोत्खातादावदातः' ॥१॥६७। इति सूत्रेण 'तहा' शब्दस्य आकारस्य अकारः,'इतेः स्वरात् तश्च द्विः' ।।६।११४२।। इति सूत्रेण इतेरिकारस्य लुक , तकारस्य द्वित्वञ्च । तहत्ति ॥
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