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गछायार पइएणयं ___ गच्छ में रहने का बड़ा फल यह है कि गच्छ में अन्य साधुओं के साथ रहने से वह अधिकाधिक निर्जरा कर सकता है और हर समय सारणा वारणा तथा प्रेरण होते रहने से उस में दोष नहीं आने पाते और गच्छ से बाहिर चले जाने से उस में स्वछन्दता आने का भय है और दोषोत्पत्ति की प्रबल सम्भावना है। अतः क्रोधादि के वशीभूत होकर उसे गच्छ से बाहिर नहीं जाना चाहिये ।।
किन २ साधुओं के साथ रहने से एक साधक आत्मा विपुल निर्जरा करता है अब उन का वर्णन करते हैंगुरुणो छंदणुवत्ती, सुविणीए जिअपरीसहे धीरे । नवि थद्धे न वि लद्ध, न वि गारविए विगहसीले ।।५२॥
जो विनयपूर्वक गुरुजनों की आज्ञा का पालन करता है और जो परीषह आएं उन्हें धैर्य के साथ सहन करता है। अपने को अभिमान में न डुबोते हुए लोभ के जाल में नहीं फंसता है, जो लोलुपता रहित है तथा चार प्रकार की विकथाओं को छोड़ कर तीन गौरवों से पृथक रहता है । खते दंते गुत्ते, मुत्ते वेरग्गमग्गमल्लीणे । दसविहसोमायारी, ओवस्सगसंजमुज्जुत्ते ॥ ५३॥ __क्षमा को धारण करके अपनी इन्द्रियों पर जो नियन्त्रण रखता है तथा सदा अत्मगुप्त रहता है अनेक प्रकार के आने वाले
गुरोः छन्दानुवातनः , सुविनीताः जितपरीषहाः धीराः । नापि स्तब्धाः नापि लुब्धाः, नापि गौरविता विकथाशीलाः ॥५२ क्षान्ताः दान्ताः गुप्ताः, मुक्ताः वैराग्यमार्गालीनाः । दशविधसामाचारी-आवश्यकसंयमोद्यताः ॥ ५३ ।।
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