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गच्छायार पइरणयं परमत्थो न तं अमयं, विसं हालाहलं खु तं ।
न ते अजरामरो हुजा, तक्खणा निहणं वए || ४७ ॥ सूत्रार्थ से जो अनभिज्ञ है उस के वचनों द्वारा कही हुई अमृततुल्य बात भी ग्रहण न करे क्योंकि अगीतार्थ की कही हुई बात अमृतरूप नहीं होती। भले ही वह ऊपर से अमृतसमान प्रतीत होती हो परन्तु वह वास्तव में अमृत नहीं वह हालाहल जीवननाशक एक उत्कट विष है । उस के पान करने से जीव मृत्यु को प्राप्त होता है और वह कभी जन्ममरण के चक्कर से नहीं निकल
सकता ॥
श्रगीयत्थकुसीलेहिं, संगं तिविहेण वोसिरे ।
मुक्रखमग्गसिमे विग्धे, पहंमि तेणगे जहा ॥ ४८ ॥
परमार्थ को न जानने वाले, जिनका कुत्सित आचार है उनके सहवास को तीन करण तीन योग से त्याग दे अर्थात् मन से भी उनके साथ न रहे और वचन आदि के द्वारा उन से प्रीति न बढ़ावे उन से हर समय बचने का, अपनी आत्म को सुरक्षित रखने का प्रयत्न करे उन को अपनी मोक्षसाधना में विघ्नरूप समझे; जिस प्रकार एक पथिक को मार्ग के चोर एवं लुटेरों से सावधान होकर चलना पड़ता है इसी प्रकार मोक्षाभिलाषी को इन गीतार्थ तथा कुत्सित आचरण वालों से सावधान एवं अप्रमत्त होकर विचरण करना चाहिये ।
परमार्थतो न तदमृतं विषं हालाहलं खलु तत् ।
न तेनाजरामरो भवेत्, तत्क्षणात् निधनं व्रजेत् ॥ ४७ ॥ अगीतार्थकुशीलैः सङ्ग' त्रिविधेन व्युत्सृजेत् ।
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मोक्षमार्गस्येमे विघ्नाः पथि स्तेनकाः यथा ॥ ४८ ॥
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