Book Title: Gacchayar Painnayam
Author(s): Trilokmuni
Publisher: Ramjidas Kishorchand Jain

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Page 24
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir साधुस्वरूपनिरूपण अगीतार्थों के साधु होने पर भी उन का संग छोड़ देना चाहिये। ___ अब गीतार्थ की महना का वर्णन करते हैंगीअत्थस्स वयणेणं, विसं हालाहलं पिबे । निचिकप्पो य भक्खिजा, तक्खणे जं समुद्दवे ॥ ४४ ।। परमत्थो विसंगो तं, अमयरसायणं खु तं । निविग्धं जं न तं मारे, मोवि अमयस्समो ॥ ४५ ॥ गीतार्थ = सूत्रार्थ के मर्मज्ञाता के वचन, भले ही वे हालाहल विष के समान प्रतीत होते हों और उन वचनों से उस का मरण भी क्यों न होता हो परन्तु फिर भी साधक आत्मा जन वचनों को विना संकोच सहर्ष स्वीकार करे। क्योंकि ये वचन परमार्थ में = वास्तव में विष नहीं हैं अपितु विघ्न-बाधा से रहित अमृततुल्य हैं। यदि उन गीतार्थो के वचनों को मान्य रखते हुए उस की उस समय मृत्यु भी क्यों न होजाए फिर भी वे वचन अन्त में उस को अजर अमर बना देने वाले हैं। अगीअत्थस्स वयणेणं, अमयपि न घुटए । जेण नो तं भवे अमयं, जं अगायत्थदेसियं ।।४६ ॥ गीतार्थस्य वचनेन, विषं हालाहलं पिबेत् । निर्विकल्पश्च भक्षयेत्, तत्क्षणे यत् समुद्रावयेत् ॥४४॥ परमार्थतो विषं न तद-मृतरसायनं खलु तत् । निर्विघ्नं यद् न तद् मारयति, मृतोऽपि अमृतसमः ॥ ४५ ।। अगीतार्थस्य वचनेन, अमृतमपि न पिबेत् । येन न तद् भवेदमृतं, यदगीतार्थदेशितम् ॥ ४६॥ For Private And Personal Use Only

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