Book Title: Gacchayar Painnayam
Author(s): Trilokmuni
Publisher: Ramjidas Kishorchand Jain

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Page 26
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir साधुस्वरूपनिरूपण पञ्जलि हुयवहं दठु, निस्संको तत्थ पविसिउ । अत्ताणं निद्दहिजाहि नो कुसीलस्स लिए ॥ ४६ ॥ २३ जलती हुई अग्नि में निशङ्करूप से प्रविष्ट होकर अपने को भस्म कर देना अच्छा है परन्तु कुत्सित आचार वाले के साथ रहना अच्छा नहीं || पञ्जलंति जत्थ धगधगस्स, गुरुणावि चोइए सीसा | रागदोसे व अणु-सथ तं गोयम ! न गच्छं || ५०|| गुरु के समझाने पर, यदि शिष्यगण की क्रोधाग्नि भड़क उठ और अपनी भूल स्वीकार न करे उलटा शिक्षा देने वाले के ही अवगुण निकालना शुरू कर दे इस प्रकार समझाने पर जो कलह को बढ़ाता है। और यदि गुरुजन अधिक जोर देकर समझाते हैं तो वह दुःख मानता है और पश्चाताप करने लगता है कि 'मैं यों हि दीक्षा ली' । इस प्रकार के जहां शिज्यों के मन में विचार उठते हों. हे गौतम! वह वास्तव में गच्छ नहीं है । इस प्रकार क्रुद्ध होकर यदि कोई शिष्य गच्छ से बाहर जा रहा हो उसे उपदेश देते हुए ग्रन्थकार कहते हैंगच्छो महानुभावो, तत्थ वसंताणं निज्जरा विउला । सारणवारण चोप्रा- माईहिं न दोसपविची ॥ ५१ ॥ For Private And Personal Use Only प्रज्वलितं हुतवहं दृष्ट्वा निःशङ्कस्तत्र प्रविश्य । आत्मानं निर्दहेत, न कुशीलमालीयेत् ॥ ४६ ॥ प्रज्वलन्ति यत्र धगधगायमानं, गुरुणापि नोदिताः शिष्याः । रागद्वेषाभ्यां व्यनु-शयेन स गौतम ! न गच्छः ॥ ५० ॥ गच्छ महानुभाव - स्तत्र वसतां निर्जरा विपुला । स्मरणावरणाचोदना - दिभिर्न दोषप्रतिपत्तिः ॥ ५१ ॥

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