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गच्छायार पइरणयं
ऊहापोह के पश्चात् सदा शास्त्रानुसार ही प्रासुक जल ग्रहण करने
की इच्छा करते हैं, हे गौतम ! वह वास्तविक गच्छ है ॥
अत्थ य सूलविसूय, अन्नयरे वा विचिनमायके | उप्पराणे जलगुज्जालणाइ, कीरइ न मुणि ! तयं गच्छम् ॥ ७६ ॥
शूल, विशूचिका तथा अन्य कोई सद्यप्राणघातक व्याधि के उत्पन्न हो जाने पर भी जहां अग्निकाय का आरम्भ नहीं किया जाता, हे गौतममुने ! वह वास्तव में गच्छ है ।
बीयपणं सारुविगाड़ - सड्ढाइमाइएहिं च । कारिती जयणाए, गोयम ! गच्छं तयं भणियम ॥ ८० ॥
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अपवादरूप में जहां कोई अवश्यक प्रसंग आजाए उस समय भी जिस गच्छ के साधु यत्नापूर्वक अग्नि का आरम्भ साधुवेषधारी सारूपिक से इस के अभाव में सिद्धपुत्र से इस के अभाव में चारित्रयुक्त पश्चात्कृत से इस के न मिलने पर व्रतधारी श्रावक से तथा इस के भी न मिलने पर भद्रिकपरिणामी अन्य दर्शनीय गृहस्थ से ही करावे । हे गौतम ! वह सही अर्थों में गच्छ कहलाता है ॥
यत्र च शूले विशुचिकायां, अन्यतरस्मिन् वा विचित्रातङ्क । उत्पन्ने ज्वलनोज्ज्वालनादि, क्रियते न मुने ! सको गच्छः ॥७६॥
द्वितीयपदेन सारूपिकादि - श्राद्धादिश्रादिभिश्व | कारयन्ति यतनया, गौतम ! गच्छः सको भणितः ॥ ८० ॥
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