Book Title: Gacchayar Painnayam
Author(s): Trilokmuni
Publisher: Ramjidas Kishorchand Jain

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Page 22
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir साधुस्वरूपनिरूपण .१६ संयम मे विपरीत मार्ग पर जाते हुए शिष्यसमुदाय को रोकता नहीं है तो वह आचार्य तीर्थङ्कर महाराज की श्राज्ञा का विराधक संखेवेणं मए सोम्म !, परिणअं गुरुलक्षणं । गच्छस्स लखणं धीर!, संखेवेणं निसामय ।। ४०।। ___ गुरु अपने शिष्य से कहता है कि अयि ! सौम्य शिष्य !! यह मैंने आचार्य का संक्षेप में वर्णन किया है । हे धैयवान ज्ञानगुणनिधे! अब तुम गच्छ के क्या लक्षण हैं वह मेरे से संक्षेप में सुनो। ... यहां आचार्य स्वरूपनिरूपण नाम का प्रथम अधिकार समाप्त होता है और साबुस्वरूप निरूपण नामक दूसरा अधिकार प्रारम्भ होता है-- गीयत्थे जे सुसंविग्गे, अणालसी दढव्वए । अवलियचरित सययं, रागद्दीसविवज्जए ॥ ४१ ॥ गच्छ, वास्तव में वहीं गच्छ है जिस के साधु गीतार्थ हैं अर्थात् जिन्हें शास्त्रों का सम्यग् बोध है जो मोक्षार्थी अपनी श्रात्मा को उत्तरोत्तर शुद्ध बना रहे हैं। आलस्य जिन के समीप तक नहीं फटकता । अपने व्रतों का दृढ़तापूर्वक जो पालन कर रहे हैं और जो सदैव रागद्वेष को छोड़ते जा रहे हैं। संक्षेपेण मया सौम्य !, वर्णितं गुरुलक्षणम् ॥ गच्छस्य लक्षणं धीर !, संक्षेपेण निशामय ॥ ४० ॥ गीतार्थो यः सुसंविग्नः, अनालस्यी दृढव्रतः। . अस्खलितचारित्रः सततं, रागद्वेषविवर्जितः ॥ ११ ॥ For Private And Personal Use Only

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