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गच्छायार पइय
तीणामयकाले, केई होहिंति गोश्रमा ! सूरी |
जेसि नामरगहणेवि, हुज नियमेण पच्छित्तं ॥ ३७ ॥ हे गौतम! तीनों कालों में ऐसे भी आचार्य होते रहते हैं जिन के केवल नामोच्चारणमात्र से प्रायश्चित आता है।
टिप्पण -हर समय अच्छे तथा बुरे दोनों प्रकार के व्यक्ति होते हैं अतः साधक आत्मा को सतर्कता से प्रमश होकर विचरण करना चाहिये । जओ-सयरी भवंति अणविक्खयाइ, जह भिच्च वाहणालाए । पडिपुच्छसीहिचोश्रणा. तम्हा उ गुरू सया भयइ ॥ ३= ॥
जैसे संसार में घोड़ा, बैल तथा नौकर आदि अपने स्वामी की देख भाल न होने पर स्वच्छन्द होकर कार्य बिगाड़ देते हैं, इसी प्रकार विना पूछ ताछ और देख भाल तथा प्रेरणा के शिष्य भी स्वछन्द होकर अपनी तथा दूसरों की हानि कर बैठते हैं इस लिये गुरु शिष्य को सदैव शिक्षा देता रहता है || जो उ पमायदोसेणं, आलस्सेणं तहेव ये । सीसवग्गं न चोएह, तेण श्राणा विराहिया । ३६ ॥ जो प्राचार्य आलस्य प्रमाद तथा अन्य किसी दोष के कारण
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अतीतानागतकाले, केचिद् भविष्यन्ति गौतम ! सूरयः । येषां नामग्रहणेऽपि भवति नियमेन प्रायश्चित्तम् ॥ ३७ ॥ यतः - खैरीणि भवन्ति अनपेक्षया, यथा भृत्यवाइनानि लोके । प्रिच्छाशोधिचोदनादिभिः (विना शिष्याः), तस्मात्तु गुरुः सदा भजते
यस्तु प्रमाददोषेण, आलस्येन तथैव च ।
शिष्यवर्ग न प्रेरयति तेनाज्ञा विराधिता ॥ ३६ ॥
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