Book Title: Gacchayar Painnayam
Author(s): Trilokmuni
Publisher: Ramjidas Kishorchand Jain

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Page 19
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गच्छायार पइएणयं सुदं सुसाहुमग्गं, कहमाणों ठवइ तइयपक्वमि । अप्पाणं इयरो पुण, गिहत्थधम्माओ चुक्कैति ।। ३२॥ भगवान् के वास्तविक शुद्ध धर्म का प्ररूपण करते हुए यदि कोई सम्यग्दर्शन का आराधक होजाए तो वह तीसरे भव में मोक्ष प्राप्त कर सकता है और दूसरी ओर बड़े से बड़ा प्राचारवान भी यदि भगवान के धर्म का लोप कर रहा हो तो वह गृहस्थ धर्म से भी भ्रष्ट हो जाता है; क्योंकि वह गृहस्थ अपने गृहस्थ धर्म का बास्तविक पालन करते हुए सम्यगदर्शन से तो युक्त है परन्तु उस जिनमार्गलोपी साधु के पास तो सम्यग्दर्शन भी नहीं रहता । और विना दर्शन के सच्चा आचार कहां ? जइवि न सक्कं काउं, सम्म जिणभासिनं अणुद्वाणं । तो सम्म भासिज्जा, जह भणिखीणरागेहि ।। ३३ ।। भोसन्नोऽवि विहारे, कम्मं सोहेइ सुलभबोही श्र। चरणकरण विसुद्धं, उववृहितो परूवितो ॥ ३४ ।। यदि तू भगवान के कथनानुसार आचरण नहीं कर सकता तो कम से कम जैसा वीतराग भगवान् ने प्रतिपादन किया है वैसा शुद्धं सुसाधुमार्ग, कथयन् स्थापयति तृतीयपक्षे। मात्मानमितरः पुनः, गृहस्थधर्माद् भ्रश्यति ।। ३ ।। यद्यपि न शक्यं कर्तु, सम्यग् जिनभाषितमनुष्ठानम् । ततः सम्यग् भाषेत, यथा भणितं क्षीणरागैः ॥ ३३ ।। भवसन्नोऽपि विहारे, कर्म शोधयति सुलभबोधिश्च । घरणकरणं विशुद्ध, उपद्व्हयन प्ररूपयन् ॥ ३४ ॥ For Private And Personal Use Only

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