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तस्स उत्तरी ।
कम्माणं निग्घायणट्ठाए ठामि काउस्सग्गं ॥
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अन्वयार्थ – 'तम्स' उसको 'उत्तरी करणेणं' श्रेष्ट-उत्कृष्ट बनाने के निमित्त 'पायच्छित्तकरणेणं' प्रायश्चित्त - आलोचना करने के लिये ' विसोहीकरणेणं ' विशेष शुद्धि करने के लिये विसल्लीकरणेणं' शल्य का त्याग करने के लिये और 6 पावाणं पाप कम्माणं ' कर्मों का ' निग्धायणट्ठाए नाश करने के लिये काउस्सग्गं' कायोत्सर्ग 'ठामि' करता हूँ । भावार्थ – ईर्यापथिकी क्रिया से पाप-मल लगने के कारण आत्मा मलिन हुआ इसकी शुद्धि मैंने 'मिच्छामि दुक्कडं द्वारा की है । तथापि परिणाम पूर्ण शुद्ध न होने से वह अधिक निर्मल न हुआ हो तो उसको अधिक निर्मल बनाने के निमित्त उस पर बार बार अच्छे संस्कार डालने चाहिये । इसके लिये प्रायश्चित्त करना आवश्यक है । प्रायश्चित्त भी परिणाम की विशुद्धि के सिवाय नहीं हो सकता, इसलिये परिणाम- विशुद्धि आवश्यक है । परिणाम की विशुद्धता के लिये शल्यों का त्याग करना जरूरी है । शल्यों का त्याग और अन्य सब पाप कर्मों का नाश काउस्सग्ग से ही हो सकता है. इसलिये मैं काउसम्ग करता हूँ ।
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पापानां कर्मणां निघतनार्थाय तिष्ठामि कायोत्सर्गम् ।
१ - शल्य तीन हैं: - ( १ ) माया ( कपट ), ( २ ) निदान ( फलकामना), (३) मिथ्यात्व (कदाग्रह); समवायाङ्ग सू० ३ पृ० -