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प्रतिक्रमण सूत्र ।
ते सव्वे सिरसा मणसा मत्थण वंदामि ॥ १ ॥ अन्वयार्थ -- ' अड्ढाइज्जेसु' अढ़ाई 'दीवसमुद्देसु' द्वीप - समुद्र के अन्दर 'पनरससु' पन्द्रह 'कम्मभूमीसु' कर्मभूमियों में 'रयहरणगुच्छपडिग्गहधारा' रजोहरण, गुच्छक और पात्र धारण करने वाले, 'पंचमहव्वयधारा' पाँच महाव्रत धारण करने वाले, 'अट्ठारससहस्स सीलिंगधारा' अठारह हज़ार शीलाङ्ग धारण करने वाले और 'अक्खयायारचरित्ता' अखण्डित आचार तथा अखण्डित चारित्र वाले, 'जावंत' जितने और 'जे के वि' जो कोई 'साहू' साधु हैं 'ते' उन 'सव्वें' सब को 'मणसा' मन से भावपूर्वक – 'सिरसा मत्थएण' सिर के अग्रभाग से 'वंदामि' वन्दन करता हूँ ॥ १ ॥
भावार्थ – ढाई द्वीप और दो समुद्र के अन्दर पन्द्रह कर्मभूमियों में द्रव्य-भांव-उभयलिङ्गधारी जितने साधु हैं उन सब को भाव - पूर्वक सिर झुका कर मैं वन्दन करता हूँ ॥ १ ॥
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४३- - वरकनक सूत्र | वरकनकशङ्खविद्रुम, मरकतघनसन्निभं विगतमोहम् । सप्ततिशतं जिनानां सर्वामरपूजितं वन्दे || १ || अन्वयार्थ——वरकनकशङ्खविद्रममरकतघनसन्निभं' श्रेष्ठ
१-गुच्छक, पात्र आदि द्रव्यलिङ्ग हैं । २ - महाव्रत, शीलाङ्ग, आचार आदि भावलिङ्ग हैं |