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प्रतिक्रमण सूत्र। भंते, इच्छामि०, ठामि०, तम्स उत्तरी, अन्नत्थ०" कह कर दो लोगस्स का कायोत्सर्ग कर के प्रगट लोगस्स पढ़े । पीछे 'सब्बलोए, अरिहंत चेइयाणं, अन्नत्थ०' कह कर एक लोगस्स का कायोसर्ग करे। बाद "पुक्खरवरदीवड्ढे, सुअस्स भगवओ, करेमि काउस्सग्गं, वंदणवत्तिआए, अन्नत्थ" कह कर एक लोगस्स का कायोत्सर्ग करे । बाद “सिद्धाणं बुद्धाणं" कह कर 'सुअदेवयाए करेमि काउस्सग्गं अन्नत्थ ' पढ़ कर एक नवकार का कायोत्सर्ग करे । कायोत्सर्ग पार कर 'नमोऽर्हत्' कह कर 'सुअदेवया' की थुइ कहे । पीछे 'खित्तदेवयाए करेमि काउस्सग्गं अन्नत्थ' पढ़ कर एक नवकार का कायोत्सर्ग करे। पार के 'नमोऽर्हत्' कह कर 'खित्तदेवया' की थुइ कहे । बाद एक नवकार पढ़ के बैठ कर मुहपत्ति का पडिलेहण कर द्वादशावत-वन्दना देवे। बाद 'सामायिक, चउव्वीसत्थो, वन्दन, पडिक्कमण, काउस्सम्गं, पच्चक्खाण किया है जी' ऐसा कहे । पीछे बैठ कर "इच्छामो अणुसठिं, नमो खमासमणाणं, नमोऽहत्०" कह कर "नमोस्तु वधर्मानाय” पढ़े। [स्त्रीवर्ग 'नमोस्तु
1-यहा से 'पच्चक्खाण' नामक छठे आवश्यक का आरम्भ होता है, जो पच्चक्खाण लेने तक में पूर्ण हो जाता है । पच्चक्खाण से तप-आचार की और संपूर्ण प्रतिक्रमण करने से वार्याचार की शुद्धि होती है ।
२-यहाँ से देव-गुरु-वन्दन शुरू होता है जो आवश्यकरूप माङ्गलिक क्रिया की समाप्ति हो जाने पर किया जाता है ।
संक्षेप में, आवश्यक क्रिया के उद्देश्य, समभाव रखना; महान् पुरुषों का चिन्तन व गुण-कीर्तन करना; विनय, आज्ञा-पालन आदि गुणों का विकास करना; अपने दोषों को याद कर फिर से उन्हें न करने के लिये सावधान हो