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परिशिष्ट ।
तेषां श्रीतीर्थयात्रा फलमतुलमलं जायते मानवानां, कार्याणां सिद्धिरुच्चैः प्रमुदितमनसां चित्तमानन्दकारी | १० |
सार- इन दस श्लोकों में से नौ श्लोकों के द्वारा तो तीर्थों को नमस्कार किया है और दसवें श्लोक में उस का तीर्थ-यात्रा तथा कार्यसिद्धिरूप फल बतलाया है ।
पहिले श्लोक से दिव्य स्थानों में स्थित चैत्यों को; दूसरे और तीसरे श्लोक से वैताढ्य आदि पर्वतीय प्रदेशों में स्थित चैत्यों को; चौथे, पाँचवे और छठे श्लोक से आघाट आदि देशों में स्थित चैत्यों को; सातवें श्लोक से चन्द्रा आदि नगरियों में स्थित चैत्यों को और आठवें तथा नौवें श्लोक से प्राकृतिक, मानुषिक, दिव्य आदि सब स्थानों में स्थित चैत्यों को नमस्कार किया है।
[ परसमयतिमिरतरणि । ]
परसमय तिमिरतरणिं, भवसागरवारितरणवरतरणिम् । रागपरागसमीरं वन्दे देवं महावीरम् ॥ १॥
भावार्थ - मिथ्या मत अथवा बहिरात्मभाव रूप अन्धकार को दूर करने के लिये सूर्य समान, संसाररूप समुद्र के जल से फार
करने के लिये नौका - समान और कर फेंक देने के लिये वायु-समान; ऐसे
रागरूप पराग को उड़ा श्रीमहावीर भगवान् को
मैं नमन करता हूँ ॥ १ ॥