Book Title: Devsi Rai Pratikraman
Author(s): Sukhlal
Publisher: Atmanand Jain Pustak Pracharak Mandal

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Page 274
________________ परिशिष्ट। के त्याग को चारित्र पालन करके सफल किया। संसार त्याग को सफल करने वाले सभी साधु इन्हीं के जैसे होते हैं ॥१॥ * साहूण वंदणेणं, नासह पावं असंकिया भावा । फासुअदाणे निज्जर, अभिग्गहो नाणमाईणं ॥२॥ भावार्थ-साधुओं को प्रणाम करने से पाप नष्ट होता है, परिणाम शङ्काहीन अर्थात् निश्चित हो जाते हैं तथा अचित्तदान द्वारा कर्म की निर्जरा होने का और ज्ञान आदि आचारसंबन्धी अभिग्रह लैने का अवसर मिलता है ।। २ ॥ x छउमत्थो मृढमगो, कित्तियमितं वि संभाई जीवो।। जंच न संभरामि अहं, मिच्छा मि दुक्कडं तस्स॥३॥ भावार्थ-छमस्थ व मूढ जीव कुछ ही बातों को याद कर सकता है, सब को नहीं, इस लिये जो जो पाप कर्म मुझे याद नहीं आता, उस का मिच्छा मि दुक्कडं ॥ ३ ॥ + मणेण चिंतिय, मसुहं वायाइ भासियं किंचि । असुहं कारण कयं, मिच्छा मि दुक्कडं तस्स ॥४॥ भावार्थ-मैं ने जो जो मन से अशुभ चिन्तन किया, वाणी * साधूनां वन्दनन नश्यति पापमशकिता भावाः । प्रामुकदानेन निर्जराऽभिप्रहो ज्ञानादीनाम् ॥ २ ॥ + छमस्थो मूढमनाः कियन्मात्रमपि स्मरति जीवः । यच्च न स्मराम्यहं मिथ्या मे दुष्कृतं तस्य ॥ ३ ॥ है यद्यन्मनसा चिन्तितमशुमं वाचा भाषितं किञ्चित् । अशुभं कायेन कृतं मिथ्या मे दुष्कृतं तस्य ॥४॥

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