Book Title: Devsi Rai Pratikraman
Author(s): Sukhlal
Publisher: Atmanand Jain Pustak Pracharak Mandal

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Page 244
________________ विधियाँ। २०५ संदिसह भगवन् देवसिअं आलोउं ? इच्छं । आलोएमि जो मे देवसिओ०" कहे बाद "सात लाख, अठारह पापस्थानक" कहे । पीछे “सव्वस्सवि देवसिय" पढ़ कर नीचे बैठे । दाहिना घुटना खड़ा कर के “एक नवकार, करेमि भंते, इच्छामि पडिक्कमिउं जो मे देवसिओ अइयारो' इत्यादि पढ़ कर "वंदित्त सूत्र' पढ़े। बाद द्वादशावर्त-वन्दना देवे । पीछे 'इच्छा०, अब्भुढिओहं, अभितर' इत्यादि सूत्र जमीन के साथ सिर लगा कर पढ़े। बाद द्वादशावर्त-वन्दना दे कर खड़े खड़े "आयरियउवज्झाए, करेमि १–यहाँ से 'प्रतिक्रमण' नामक चौथा आवश्यक शुरू होता है जो अब्भुष्टि - ओहं' तक चलता है । इतने भाग में खास कर पापों की आलोचना का विधानहै। २-वंदित्त सूत्र के या अन्य सूत्र के पढ़ने के समय तथा कायोत्सर्ग के समय जुदे जुदे आसनों का विधान है । सो इस उद्देश्य से कि एक आसन पर बहुत देर तक बैठे रहने से व्याकुलता न हो । वीरासन, उत्कटासन आदि ऐसे आसन हैं कि जिन से आरोग्यरक्षा होने के उपरान्त निद्रा, आलस्य आदि दोष नष्ट हो कर चित्त-वृत्ति सात्त्विक बनी रहती है और इस से उत्तरोत्तर विशुद्ध पारणाम बने रहते हैं। ३- यहाँ से 'काउस्सग्ग' नामक पाँचवाँ आवश्यक शुरू होता है, जो क्षेत्रदेवता के काउस्सरग तक चलता है । इस में पाँच काउस्सग्ग आते हैं। जिन में से पहले, दूसरे और तीसरे का उद्देश्य क्रमशः चारित्राचार, दर्शनाचार और ज्ञानाचार की शुद्धि करना है । चौथे का उद्देश्य तदेवता की और पाँचवें का उद्देश्य क्षेत्रदेवता की आराधना करना है । ____ काउस्सग्ग का अनुष्ठान समाधि का एक साधन है। इस में स्थिरता, विचारणा और संकल्पबल की वृद्धि होती है जो आत्मिक-विशुद्धि में तथा देवों को अपने अनुकूल बनाने में उपयोगी है।

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