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संथारा पोरिसी।
१९३ अङ्गीकार करता हूँ कि जिस में जीवन-पर्यन्त अरिहन्त ही मेरे देव हैं, सुसाधु ही मेरे गुरु हैं और केवलि-कथित मार्ग ही मेरे लिये तत्त्व है ॥१४॥ * खमिअ खमाविअ मइ खमह, सव्वह जीवनिकाय । सिद्धह साख आलोयणह, मुज्झह वइर न भाव ॥१५॥ सव्वे जीवा कम्मवस, चउदहराज भमंत । ते मे सव्व खमाविआ, मुज्झवि तेह खमंत ॥१६॥
भावार्थ-[खमण-खामणा । ] हे जीवगण ! तुम सब ख'मण-खामणा कर के मुझ पर भी क्षमा करो। किसी से मेरा वैर भाव नहीं है । सब सिद्धों को साक्षी रख कर यह आलोचना की जाती है। सभी जीव कर्म-वश चौदह-राजु-प्रमाण लोक में भ्रमण करते हैं, उन सब को मैं ने खमाया है, इस लिये वे मेरे पर क्षमा करें ॥१५॥१६॥ जिंजं मणेण बद्धं, जं जं वाएण भासि पावं ।
जं जं कायेण कयं, तस्स मिच्छा मि दुक्कडं ॥१७॥
भावार्थ-[मिच्छा मि दुक्कडं । ] जो जो पाप मैं ने मन, वचन और शरीर से किया, वह सब मेरे लिये मिथ्या हो ॥१७॥ * क्षमित्वा क्षमयित्वा मयि क्षमध्वं, सर्वे जीवनिकायाः । सिद्वानां साक्ष्ययालोचयामि, मम वैरं न भावः ॥ १५॥ सर्वे जीवाः कर्मवशाश्चतुर्दश रज्जी भ्राम्यन्तः। ते मया सर्वे क्षामिताः, मय्यपि ते क्षाम्यन्तु ॥ १६ ॥ यद् यद् मनसा बद्धं, यद् यद् वाचा भाषितं पापम् । यद् यत् कायेन कृतं, तस्य मिथ्या मे दुष्कृतम् ॥१७॥