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संसारदावानल । छाया-संभार सारे ! वरकमलकरे ! तारहाराभिरामे! वाणीसंदोहदेहे ! भवविरहवरं देहि मे देवि ! सारम् ॥४॥
अन्वयार्थ-'धूलीबहुलपरिमला' रज-पराग से भरी हुई सुगन्धि में 'आलीढ' मग्न [और] लोल चपल [ऐसी] 'अलि-माला' भौंरों की श्रेणियों की 'झङ्कार' गूंज के 'आराव' शब्द से 'सारं' श्रेष्ठ [ तथा ] 'आमूल' जंड़ से लेकर 'आलोल' चञ्चल ऐसे] 'अमलदल-कमल' स्वच्छ पत्र वाले कमल पर स्थित ऐसे 'अगारभूमि-निवासे' गृह की भूमि में निवास करने वाली 'छायासंभारसारे' कान्ति-पुञ्ज से शोभायमान 'वर-कमलकरे' हाथ में उत्तम कमल को धारण करने वाली 'तार-हारांभिरामे' स्वच्छहार से मनोहर [ और 'वाणीसंदोहदेहे' बारह अङग रूप वाणी ही जिसका शरीर है ऐसी देवि-हेश्रतदेवि ! 'मे' मझ को 'सारं' सर्वोत्तम 'भवविरहवर' संसार-विरह-मोक्ष का वर ‘देहि दे ॥ ४ ॥
भावार्थ-[ श्रुतदेवी की स्तुति ] जल के कल्लोल से मूलपर्यन्त कंपायमान तथा पराग की सुगन्ध से मस्त हो कर चारों तरफ गूंजते रहने वाले भौंरों से शोभायमान ऐसे मनोहर कमल-पत्र के ऊपर आये हुए भवन में रहने वाली, कान्ति के. समूह से दिव्य रूप को धारण करने वाली, हाथ में सुन्दर कमल को रखने वाली, गले में पहने हुये भव्य हार से दिव्य