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- वंदित्त सूत्र।
१२१ भावार्थ--जिस प्रकार भार उतर जाने पर भारवाहक के सिर पर का बोझा कम हो जाता है, उसी प्रकार गुरु के सामने पाप की आलोचना तथा निन्दा करने पर शिप्य के पाप का बोझा भी घट जाता है ॥४०॥ । आवस्मएक एए,- सानो जइ वि दुरओ होइ ।
दुक्लाणमाकिरिशं, काही अधिरेग कालेण ॥४१॥
अन्वयार्थ---'जइ वि' यद्यपि 'सायओ' श्रावक 'बहुरओ' बहु पाप वाला होइ' हो तथापि वह 'एएण' इस 'आवन्सएण' आवश्यक क्रिया के द्वारा 'क्वाण' दःखों का अंतकिरिअं नाश 'अचिरेण' थोड़े ही 'कालेण काल में 'काही करेगा॥११॥
भावार्थ-~यद्यपि अनेक आरम्भों के कारण श्रावक को कर्म का बन्ध बराबर होता रहता है तथापि प्रतिक्रमण आदि आवश्यक क्रिया द्वारा श्रावक याद ही समय में दुःखों का अन्त कर सकता है ॥४१॥
[ याद नहीं आये हुए अतिचारों की आलोचना ] * आलोअणामविहा, नव संभरिमा पडिक्कमणकाले।
मूलगुणउत्तरगुणे, तं निंदे तं च परिहानि ॥४२॥ अन्वयाथ----'आलोअगा' आलोचना 'बहुविहा' बहुत * आवश्यकतेन श्रावको यर्याप बहुरजा भवन्ति ।
दुःखानामन्तक्रियां, करिबत्यांचरण कालेन ॥४१॥ * आलोचना बहुविधा, न च स्मृता प्रतिक्रमणकाले ।
मूलगुणोत्तरगुणे, तभिन्दामि तच्च गहें ॥४२॥