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नमोऽस्तु वर्धमानाय । १३१ अन्वयार्थ—'कर्मणा' कर्म से 'स्पर्धमानाय' मुकाबिला करने वाले, और अन्त में 'तज्जयावाप्तमोक्षाय' उस पर विजय पा कर मोक्ष पाने वाले, तथा 'कुतीर्थिनाम्' मिथ्यात्वियों के लिये 'परोक्षाय' अगम्य, ऐसे 'वर्धमानाय' श्रीमहावीर को 'नमोऽस्तु' नमस्कार हो ॥१॥
भावार्थ-जो कर्म-वैरियों के साथ लड़ते लड़ते अन्त में उन को जीत कर मोक्ष को प्राप्त हुये हैं, तथा जिन का स्वरूप मिथ्यामतियों के लिये अगम्य है, ऐसे प्रभु श्रीमहावीर को मेरा · नमस्कार हो ॥१॥ येषां विकचारविन्दराज्या, ज्यायःक्रमकमलावलिं दधत्या। सदृऔरतिसङ्गतं प्रशस्यं, कथितं सन्तु शिवाय ते जिनेन्द्राः।।
अन्वयार्थ—'येषां' जिन के 'ज्यायःक्रमकमलावलिं' अतिप्रशंसा योग्य चरण-कमलों की पङ्क्ति को 'दधत्या' धारण करने वाली, ऐसी 'विकचारविन्दराज्या' विकस्वर कमलों की पङ्क्ति के निमित्त से अर्थात् उसे देख कर विद्वानों ने] 'कथितं' कहा है कि 'सदृशः' सदृशों के साथ अतिसङ्गतं' अत्यन्त समागम होना 'प्रशस्य' प्रशंसा के योग्य है, 'ते' वे 'जिनेन्द्राः' जिनेन्द्र 'शिवाय' मोक्ष के लिये 'सन्तु' हो ॥२॥
भावार्थ-बराबरी वालों के साथ अत्यन्त मेल का होना प्रशंसा करने योग्य है, यह कहावत जो सुनी जाती है, उसे जिनेश्वरों के सुन्दर चरणों को धारण करने वाली ऐसी देव