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वंदित्त सूत्र । १११ (१) संथारे की विधि में प्रमाद करना अर्थात् उसका पडिलेहन प्रमार्जन न करना, (२) अच्छी तरह पडिलेहन प्रमार्जन न करना, (३) दस्त, पेशाब आदि करने की जगह का पडिलेहन प्रमार्जन न करना, (४) पडिलेहन प्रमार्जन अच्छी तरह न करना और (५) भोजन आदि की चिन्ता करना कि कब संबेरा हो और कब मैं अपने लिये अमुक चीज बनवाऊँ ॥२९॥
[बारहवें व्रत के आतिचारों की आलोचना] * सच्चित्ते निक्खिवणे, पिहिणे ववएसमच्छरे चेव ।
कालाइक्कमदाणे, चउत्थ सिक्खावए निंदे ॥३०॥
अन्वयार्थ--'सच्चित्ते' सचित्त को 'निक्खिवणे' डालने से 'पिहिणे' सचित्त के द्वारा ढाँकने से 'ववएस' पराई वस्तु को अपनी और अपनी वस्तु को पराई कहने से मच्छरे' मत्सर-ईर्ष्या-करने से 'चेव' और 'कालाइक्कमदाणे' समय बति जाने पर आमंत्रण करने से 'चउत्थ' चौथे 'सिक्खावए' शिक्षावत में दूषण लगा उसकी निंदे' निन्दा करता हूँ॥३०॥
भावार्थ--साधु, श्रावक आदि सुपात्र अतिथि को देश काल का विचार कर के भक्ति पूर्वक अन्न, जल आदि देना, * सचित्ते निक्षेपणे, पिधाने व्यपदेशमत्सरे चैव। कालातिक्रमदाने, चतुर्थे शिक्षाव्रते निन्दामि ॥३०॥
अतिहिसंविभागस्स समणो० इमे पंच०, तंजहा-सच्चित्तनिक्खेवणया, सच्चित्तपिहिणया, कालइक्कमे, परववएसे, मच्छरिया य [आव० सू०,१०८३७]