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प्रतिक्रमण सूत्र । 'वेयावच्चं' वैयावृत्य 'सज्झाओ' स्वाध्याय 'झाणं' ध्यान 'तहेव' तथा 'उम्सग्गो वि अ' उत्सर्ग भी 'अन्भिंतरओ' आभ्यन्तर 'तो' तप 'होई' है ॥७॥
भावार्थ-आभ्यन्तर तप के छह भेद नीचे लिखे अनुसार हैं
(१) किये हुए दोष को गुरु के सामने प्रकट कर के उनसे पाप-निवारण के लिये आलोचना लेना और उसे करना प्रायश्चित्त है।
(२) पूज्यों के प्रति मन वचन और शरीर से नम्र भाव प्रकट करना विनय है।
__ (३) गुरु, वृद्ध, ग्लान आदि की उचित भक्ति करना अर्थात् अन्न-पान आदि द्वारा उन्हें सुख पहुँचाना वैयावृत्य है।
(४) वाचना, पृच्छा, परावर्तना, अनुप्रेक्षा और धर्म-कथा द्वारा शास्त्राभ्यास करना म्वाध्याय है ।
(५) आर्त रौद्र ध्यान को छोड़ धर्म या शुक्ल ध्यान में रहना ध्यान है।
(६) कर्म-क्षय के लिये शरीर का उत्सर्ग करना अर्थात् उस पर से ममता दूर करना उत्सर्ग या कायोत्सर्ग है ।
ये तप आभ्यन्तर इसलिये माने जाते हैं कि इनका आचरण करने वाला मनुष्य सर्व साधारण की दृष्टि में तपस्वी नहीं समझा जाता है परन्तु शास्त्रदृष्टि से वह तपस्वी अवश्य है ॥७॥