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उपसग्गहरं ।
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भावार्थ--- जो मनुष्य भगवान् के नाम-गर्भित 'विषधर - स्फुलिङ्ग' मन्त्र को हमेशा कण्ठ में धारण करता है अर्थात् पढ़ता है उसके प्रतिकूल ग्रह, कष्ट साध्य रोग, भयंकर मारी और दुष्ट ज्वर ये सभी उपद्रव शान्त हो जाते हैं ||२॥
* चिट्ठउ दूरे मंतो, दुज्झ पणामो वि बहुफलो होइ । नर- तिरिए वि जीवा, पार्वति न दुक्खदोगचं ॥ ३ ॥
अन्वयार्थ — 'मंतो' मन्त्र 'दूरे' दूर 'चिट्ठउ' रहो 'तुज्झ ं तुझ को किया हुआ 'पणा मोवि प्रणाम भी 'बहुफलो' बहुत फलदायक 'होइ' होता है, [ क्योंकि उस से ] 'जीवा' जीव 'नरतिरिए वि ' मनुष्य, तिर्यच गति में भी 'दुवखदोगच्चं ' दुःख - दरिद्रता 'न पावंति नहीं पाते हैं ॥ ३ ॥
भावार्थ - हे भगवन् ! विषधरः फुलिङ्ग मन्त्र की बात तो दूर रही; सिर्फ तुझ को किया प्रणाम भी अनेक फलों को देता है, क्योंकि उस से मनुष्य तो क्या, तिर्यंच भी दुःख या दरिद्रता कुछ भी नहीं पाते ॥ ३ ॥
x तुह सम्मते लद्धे, चिंतामणिकप्पपायवन्भहिए । पार्वति अविग्घेणं, जीवा अयरामरं ठाणं ॥ ४ ॥
तिष्टतु दूरे मन्त्रः तव प्रणामपि बहुफलो भवति । नरतिरश्चोरपि जीवाः प्राप्नुवन्ति न दुःखदोर्गलम् ॥३॥ x तव सम्यक्त्वे लब्धे चिन्तामणिकल्पपादपाभ्यधिके । प्राप्नुवन्ति अविघ्नेन, जीवा अजरामरं स्थानम् ॥ ४ ॥