Book Title: Dev Shastra Aur Guru
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Akhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad

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Page 8
________________ द्वितीय अध्याय : शास्त्र (आगम-ग्रन्थ) (27-46) शास्त्र का अभिप्राय-२७, इतिहास-शब्दों की अपेक्षा भावों का प्राधान्य 27, भगवान् की वाणी 28, मूलसंघ में विखराव 28, कसायपाहुड, छक्खण्डागम आदि श्रुतावतार 30, मूल आगम (अनुपलब्ध) 31, अङ्ग के बारह भेद 31, अङ्गबाह्य के चौदह भेद 31, अङ्ग और अङ्गबाह्य ग्रन्थों की विषयवस्तु आदि 32 / आगम का सामान्य स्वरूप- 32, श्रुत या सूत्र के दो प्रकार : द्रव्यश्रुत और भावश्रुत 34, श्रुत तथा आगमज्ञान के अतिचार 35, श्रुतादि का वक्ता कौन 35, आगमों की प्रामाणिकता के पाँच आधार-बिन्दु 36, आधुनिक पुरुषों के द्वारा लिखित वचनों की प्रमाणता कब? 38, पौरुषेयता अप्रमाणता का कारण नहीं, जैनागम कथंचित् अपौरुषेय तथा नित्य हैं 38, आगम में व्याकरणादि-विषयक भूल-सुधार कर सकते हैं, प्रयोजनभूत मूलतत्त्वों में नहीं 39, यथार्थज्ञान होने पर भूल को अवश्य सुधारें 39, पूर्वाचार्यों की निष्पक्ष दृष्टि 40, श्रुत का बहुत कम भाग लिपिबद्ध हुआ है, शेष नष्ट हो गया है 40, आगम की महिमा 41, आगम का अर्थ करने की पाँच विधियाँ 41, शास्त्रों और शास्त्रकारों का विभाजन 43, शास्त्रों के चार अनयोग 44, शास्त्रकारों का श्रुतधरादि पाँच श्रेणियों में विभाजन 44 / उपसंहार-४५ तृतीय अध्याय : गुरु (साधु) (47-115) प्रस्तावना-गुरु शब्द का अर्थ 47, परमगुरु 47, आचार्य, उपाध्याय और साधु गुरु हैं 47, संयमी साधु से भित्र की गुरु संज्ञा नहीं 48, निश्चय से अपना शुद्ध आत्मा ही गुरु है 49, क्या साधु से भिन्न ऐलकादि श्रावकों को गुरु माना जा सकता है? 50, आचार्य उपाध्याय और साधु इन तीनों में गुरुपना-मुनिपना समान है 51 / आचार्य- सामान्य स्वरूप 52, आचार्य के छत्तीस गुण 54, आचारवत्व आदि आठ गुण 55, दशस्थिति कल्प 55, बारह तप 56, छह आवश्यक 56, आचार्य दीक्षा-गुरु के रूप में 56, आर्यिकाओं का गणधर आचार्य कैसा हो? 57, बालाचार्य 57, एलाचार्य 58 निर्यापकाचार्य 58, छेदोपस्थापना की दृष्टि से निर्यापकाचार्य 59, सल्लेखना की दृष्टि से निर्यापकाचार्य 59, समाधिमरण-साधक योग्य निर्यापकाचार्य का स्वरूप 60, योग्य नियोपकाचार्य के न मिलने पर 61, सल्लेखनार्थ निर्यापकों की संख्या 62, सल्लेखना कब और क्यों? 62, सदोष शिष्य के प्रति गुरु-आचार्य का व्यवहार 63, उपाध्याय का स्वरूप 64, आचार्य आदि साधु-संघ के पाँच आधार 65 / साधु (मुनि)-साधु के पर्यायवाची नाम 66, सच्चे साधु के गुण 66, साधु के बहिरङ्ग और अन्तरङ्ग चिह्न 68, सराग श्रमण (शुभोपयोगी साधु) 69, साधु के अट्ठाईस मूलगुण 70, मूलगुणों का महत्त्व 72, शील के अठारह हजार भेद 73, उत्तरगुण (चौरासी लाख उत्तरगुण) 74 / निषिद्ध कार्य- शरीर-संस्कार 75, अमैत्री-भाव 75, क्रोधादि 75, आहार-उपकरण आदि का शोधन न करना 76, वञ्चनादि तथा आरम्भक्रियायें 76, विकथा तथा अधाकर्मादि-चर्या 76, पिशुनता, हास्यादि 76, नृत्यादि 76, वैयावृत्यादि करते समय असावधानी 77, अधिक शुभोपयोगी क्रियायें 77, तृण-वृक्ष-पत्रादि का छेदन 78, ज्योतिष-मन्त्रतन्त्र-वैद्यकादि का उपयोग 78, दुर्जनादि-संगति 78, सदोष-वसतिकासेवन 78, सदोष-आहार-सेवन 79, भिक्षाचर्या के नियमों को अनदेखा करना 79, स्वच्छन्द और एकल विहार 79, लौकिक क्रियाएँ 79 / मिथ्यादृष्टि (द्रव्यलिङ्गी) सदोष साधु- मिथ्यादृष्टि साधु के पार्श्वस्थादि पाँच भेद 80, मिथ्यादष्टि का आगमज्ञान 81, सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि की पहचान 82, अपेक्षा-भेद से सच्चे साधुओं के भेद- उपयोग की अपेक्षा दो भेद 82, विहार की अपेक्षा दो भेद 83, आचार और संहनन की उत्कृष्टता-हीनता की अपेक्षा दो भेद 83, वैयावृत्य की अपेक्षा दश भेद 84, चारित्रपरिणामों की अपेक्षा पुलाकादि पाँच भेद 84, पुलाकादि साधु मिथ्यादृष्टि नहीं 85 / निश्चय-नयाश्रित शुद्धोपयोगी साधु-शुद्धोपयोगी साधु की प्रधानता 86, क्या गृहस्थ ध्यानी (भाव साधु) हो सकता है? 87, शुभोपयोगी साधु और शुद्धोपयोगी-साधु : समन्वय 88 / आहार-आहार का अर्थ और उसके भेद 90, आहार-ग्रहण के प्रयोजन 91, आहारत्याग के छह कारण 92, आहार-विधि आदि 92, आहार का प्रमाण 93, आहार लेने का काल 94, आहार के समय खड़े होने

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