Book Title: Dev Shastra Aur Guru Author(s): Sudarshanlal Jain Publisher: Akhil Bharatvarshiya Digambar Jain Vidwat Parishad View full book textPage 7
________________ विषय-सूची बाह्य उभयरूपों की शुद्धता अपेक्षित है। वीतराग छद्मस्थ तथा अर्हत-अवस्था की प्राप्ति होने के पूर्व यथाख्यात चारित्र संभव नहीं है। अतः बाह्य-क्रियाओं में सावधानी अपेक्षित है। बाह्य-क्रियायें ही सब कुछ हैं, यह पक्ष भी ठीक नहीं है। यही जिनवाणी का सार है। वीतरागता और अहिंसा उसकी कसौटी है। ___ पुस्तक का कवरपृष्ठ ऐसा बनाया गया है जिससे सच्चे देव, शास्त्र और गुरु को चित्ररूप में जाना जा सके। ग्रन्थारम्भ में गुणस्थान-चक्र दिया गया है जिसमें चारित्रिक विकास और पतन के साथ यह दर्शाया गया है कि एक मिथ्यात्वी जीव कैसे गुणस्थान-क्रम से भगवान् (देव) बन जाता है। प्रत्येक आत्मा परमात्मा है' यह जैनदर्शन का उद्घोष संसार के समस्त प्राणियों के लिए 'अमृत-औषधि' है। अन्त में मैं इस ग्रन्थ के लेखन आदि में जिनका प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से सहयोग मिला है उनके प्रति हृदय से आभारी हूँ। सबसे अधिक मैं पूज्य गुरुवर्य पं. जगन्मोहन लाल जी शास्त्री का ऋणी हूँ जिनके निर्देशन में यह कार्य हो सका। इसके अतिरिक्त परिषद् के संरक्षक पं. डॉ. दरबारी लाल कोठिया, डॉ. पन्नालाल जी साहित्याचार्य, ब्र. माणिकचन्द्र जी चवरे, पं. हीरालाल जैन कौशल, डॉ. कस्तूरचन्द्र कासलीवाल, प्रो. खुशाल चन्द्र गोरावाला, प्रो. राजाराम जैन, अध्यक्ष डॉ. देवेन्द्रकुमार शास्त्री, उपाध्यक्ष डॉ. शीतलचंद जैन, कोषाध्यक्ष श्री अमरचन्द्र जैन, प्रकाशन मन्त्री डॉ. नेमीचन्द्र जैन, संयुक्त मन्त्री डॉ. सत्यप्रकाश जैन, डॉ. कमलेश कुमार जैन, डॉ. फलचन्द्र प्रेमी आदि विद्वत् परिषद् के सभी विद्वानों का आभारी हूँ। श्री हुकमचन्द जी जैन (नेता जी) सतना, श्री ऋषभदास जी जैन वाराणसी, डॉ. देवकुमार सिंघई जबलपर, मास्टर कोमलचन्द्र जी जैन जबलपुर, सिंघई देवकुमार जी आरा आदि समाज के प्रतिष्ठित श्रावकों का भी आभारी हूँ जिन्होंने विविधरूपों में सहयोग किया। मैं अपनी धर्मपत्नी श्रीमती मनोरमा जैन (जैनदर्शनाचार्य) तथा पुत्र श्री अभिषेक कुमार जैन को उनके सहयोग के लिए साधुवाद देता हूँ। डॉ. कपिलदेव गिरि तथा तारा प्रिंटिंग प्रेस के श्री रविप्रकाश पण्ड्या जी को धन्यवाद देता हूँ जिन्होंने पुस्तक की सुन्दर छपाई में सहयोग किया है। लेखन में जो त्रुटियाँ हुई हों उन्हें विद्वत् पाठकगण क्षमा करेंगे तथा अपने बहुमूल्य विचारों से मुझे उपकृत करेंगे। श्रुतपंचमी डॉ. सुदर्शन लाल जैन वी.नि.सं. 2520 मन्त्री, अ. भा. दि. जैन विद्वत् परिषद् 14 जून, 1994 अध्यक्ष, संस्कृत विभाग, कला संकाय काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी जीवस्थिति-सूचक गुणस्थान-चक्र अ.भा.दि. जैन विद्वत्परिषद् के संरक्षक, पदाधिकारी तथा कार्यकारिणी सदस्य आशीर्वाद (पं. जगन्मोहन लाल शास्त्री, डॉ.दरबारी लाल कोठिया, प्रो.खशालचन्द्र गोरावाला, डॉ. देवेन्द्र कुमार शास्त्री) प्रकाशकीय (प्रकाशन मंत्री की लेखनी से) प्राक्कथन प्रथम अध्याय : देव (अर्हन्त और सिद्ध) का स्वरूप (1-26) प्रस्तावना- सच्चे देव शब्द का अर्थ 1, भट्टारक-परम्परा से शासन देवीदेवताओं की पूजा का अनुचित प्रवेश 3, देव सृष्टिकर्ता आदि नहीं 3, देवस्तुति का प्रयोजन 4, तारणस्वामी द्वारा देवस्तुति का निषेध नहीं 4, शक्ति की अपेक्षा प्रत्येक आत्मा परमात्मा है ५,देव के आप्तादि नाम और उसके भेद 5 / अर्हन्त (जीवन्मुक्त)- अर्हन्त के भेद 8, सिद्धों की भी अर्हन्त संज्ञा 9, अर्हन्तों के छियालीस गुण 10, चार अनन्त चतुष्टय 10, आठ प्रातिहार्य 10, चौतीश अतिशय (आश्चर्यजनक गुण) 11, जन्म के दश अतिशय 11, केवलज्ञान के ग्यारह अतिशय 11, देवकृत तेरह अतिशय 11, अन्य अनन्त अतिशय और अर्हन्त के लिए स्थावर-प्रतिमा का प्रयोग 12, अर्हन्त की अन्य विशेषतायें- अठारह दोषों का अभाव 13, परमौदारिक शरीर होने से कवलाहार और क्षधादि परीषहों का अभाव 13, अर्हन्तों में इन्द्रिय, मन, ध्यान, लेश्या आदि का विचार 14, केवली समुद्घातक्रिया 15, दिव्यध्वनि का खिरना 16, मृतशरीर सम्बन्धी दो धारणाएँ तथा शरीरमुक्त आत्मा की स्थिति 16, विहारचर्या 16 / सिद्ध (विदेहमुक्त)-सिद्धावस्था की प्राप्ति कब? 17, सिद्धों के सुखादि 17, चैतन्यमात्र ज्ञानशरीरी 18, सिद्धों का स्वरूप 18, सिद्धों के प्रसिद्ध आठ गुण 19, प्रकारान्तर से सिद्धों के अन्य अनन्त गुण 20, सिद्धों में औपशमिकादि भावों का अभाव 21, संयतादि तथा जीवत्व आदि 21, सिद्धों की अवगाहना आदि 22, संसार में पुनरागमन का अभाव 23, सिद्धों में परस्पर अपेक्षाकृत भेद 24, अर्हन्त और सिद्धों में कथंचित् भेदाभेद 24 / उपसंहार- 25Page Navigation
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