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हो उठा। उसकी कुन्दाभ देह-कान्ति ज्योत्स्ना के शीतल प्रकाश की तरह कक्ष में फैल गयी। एक साथ सबकी आँखें अतिथि की ओर उठीं और वहीं केन्द्रित होकर रह गयीं। सबके मन में उत्सुकता से उपजे एक जैसे प्रश्न गूंज उठे
“पहले तो राजमहल में कभी इनका दर्शन नहीं हुआ, कौन हैं ये देवी ?" "कहाँ से इनका आगमन हुआ ?" "मानुषी ही हैं या किसी अप्सरा को आमन्त्रित कर लिया है महारानी ने ?" मृगावती ने दो पग बढ़कर स्नेहपूर्वक आगन्तुक को गले लगा लिया।
"ये हैं हमारी अनुजा, चन्दना।" बस, इतने ही शब्द महारानी के मुख से निकले और हर्षावेग ने उनका कण्ठ अवरुद्ध कर लिया। दोनों बहनें एक-दूसरे की बाँहों में समायीं आत्मविभोर ऐसे खड़ी थीं जैसे अब कभी अलग होना ही नहीं है। उस समय उन्हें देखकर लगता था जैसे कोई कोमल वनलता किसी पुष्पित पादप से लिपट गयी हो।
महारानी के मुख से 'अनुजा' शब्द सुनते ही समुदाय में हलचल-सी मच गयी। महिलाएँ एक-दूसरे को ढकेलते हुए अपनी रानी की बहन को निहारने का प्रयास करने लगीं। वे इस अकल्पित अवसर पर, उस अलौकिक सौन्दर्य-प्रतिमा को देखकर जितनी विस्मित हो रही थीं, उसके परिचय ने उन्हें उससे भी अधिक विस्मय में डाल दिया था। अपनी जिज्ञासा को धीमे स्वर में वे एक-दूसरे के कानों तक पहुँचा रही थीं
-“दासी के रूप में क्रय की गयीं ये चन्दना हमारी महारानी की बहन हैं ?" - "वर्धमान स्वामी को आहार देनेवाली भाग्यशाली श्राविका यही हैं न ?" - "तुमने सुना, अब ये वैराग्य लेकर आर्या संघ की शरण में जा रही हैं !" - "वैरागिन होकर यह कोमल काया तपस्या का क्लेश कैसे सहेगी ?"
और न जाने कितनी बातें। सुना हुआ सच था, पर देखे हुए पर विश्वास करना कठिन लग रहा था।
महारानी ने प्यार से चन्दना को अपने पास बिठाया। थोड़ी देर सबके साथ सुख-दुख की बातें होती रहीं फिर यथायोग्य भेंट-पुरस्कार आदि के उपरान्त वह छोटी-सी मैत्री-सभा विसर्जित हो गयी।
14 :: चन्दना